भारत के सर्व-समावेशी संविधान के निर्माता, महान समाज सुधारक एवं विधिवेत्ता, 'भारत रत्न' बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर की जयंती पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!
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बीसीआई में फर्जी डिग्री के सत्यापन के लिए सुप्रीम कौन ने कमेटी गठित की.
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फर्जी डिग्री के मामले में पीएम नरेंद्र मोदी पर तरह तरह के आक्षेप लग ही रहे हैं, और दिन प्रतिदिन, उनकी डिग्री पर संशय उठ भी रहा है, पर आज फर्जी डिग्री से जुड़ा एक और मामला सामने आया, जिस पर देश के सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया और डिग्री के वेरिफिकेशन के लिए, एक कमेटी का गठन कर दिया। फर्जी डिग्री रखना, उस आधार पर कोई भी घोषणा करना और शपथपत्र दाखिल करना, न केवल नैतिक रूप से गलत है बल्कि यह धोखाधड़ी, फ्रॉड, कूट दस्तावेज का निर्माण, और जानबूझकर झूठा शपथपत्र देने का भी एक संज्ञेय और दंडनीय अपराध है। यह अपराध, आईपीसी की धाराओं 420/467/468/471 के अंतर्गत एक दंडनीय अपराध है और यह गंभीर अपराधों की श्रेणी में आता है।
सुप्रीम कोर्ट ने, कानूनी पेशे से संबंधित एक महत्वपूर्ण दिशा में कदम उठाते हुए, 10 अप्रैल 2023, सोमवार को अधिवक्ताओं के डिग्री प्रमाणपत्रों के सत्यापन की प्रक्रिया की देखरेख के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया है। लम्बे समय से यह आशंका व्यक्त की जाती रही है कि, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अंतर्गत पंजीकृत वकीलों में से कुछ की कानून की डिग्रियां फर्जी हैं, और उन्ही फर्जी डिग्रियों के आधार पर कुछ वकील, धड़ल्ले से, वकालत भी कर रहे हैं, और उसी आधार पर हलफनामा आदि भी दे रहे हैं।
जांच पड़ताल के लिए, बनी इस समिति में सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के दो पूर्व न्यायाधीश शामिल होंगे। शीर्ष अदालत ने, वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी और मनिंदर सिंह को भी समिति के सदस्य के रूप में नामित किया गया है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया बीसीआई, को भी इस समिति में तीन सदस्यों को नामित करने के लिए कहा गया है। इस प्रकार इस समिति में, सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज, हाइकोर्ट के दो रिटायर्ड जज, और सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ एडवोकेट होंगे तथा बार काउंसिल ऑफ इंडिया की तरफ से तीन अन्य वकील होंगे। यह कमेटी कुल, आठ सदस्यों की होगी। बीसीआई द्वारा नामित सदस्यों के बारे में अभी जानकारी नहीं मिल पाई है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने अधिवक्ताओं के सत्यापन की प्रक्रिया में आने वाली बाधाओं को ध्यान में रखते हुए यह आदेश पारित किया है। समिति को सुविधाजनक तिथि पर काम शुरू करने और 31 अगस्त तक स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने के लिए कहा गया है। पीठ ने अपने आदेश में कहा है कि, "न्याय के प्रशासन की अखंडता की रक्षा के लिए, स्टेट बार काउंसिल में पंजीकृत अधिवक्ताओं का उचित सत्यापन, अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है। यह सुनिश्चित करना, देश के प्रत्येक वास्तविक अधिवक्ताओं का कर्तव्य है कि, वे यह सुनिश्चित करने की मांग में बार काउंसिल ऑफ इंडिया के साथ सहयोग करें कि, वकालत, लीगल प्रैक्टिस, के प्रमाण पत्र का आधार, लॉ की डिग्री का, प्रमाण पत्र के साथ विधिवत सत्यापन किया जाय। जब तक कि, यह सत्यापन, समय-समय पर नहीं किया जाता है, तो इस बात का बड़ा खतरा हो सकता है कि न्याय का प्रशासन, स्वयं एक गंभीर संकट में पड़ जाएगा।"
निश्चित रूप से फर्जी डिग्री के बढ़ते चलन और उस पर की जा रही प्रशासनिक अकर्मण्यता से, यह व्याधि एक संक्रामक रूप ले रही है। बात सिर्फ बीसीआई और वकालत के पेशे की नहीं है, बात शिक्षा और अन्य विभागों में भी अक्सर फर्जी डिग्री की बात सामने आने की है। कुकुरमुत्ते की तरह से उग गए शिक्षा संस्थान, ऐसी डिग्रियों के ही बल पर जी खा रहे हैं। उनकी शिकायत पर कार्यवाही भी होती है, पर यह व्याधि कम भी नहीं हो रही है। सुप्रीम कोर्ट का बीसीआई के लाइसेंस शुदा वकीलों की डिग्री के सत्यापन का फैसला एक बड़ा और जरूरी फैसला है। यह काम आसान भी नहीं है, पर पुरानों के सत्यापन के साथ साथ, नए रजिस्ट्रेशन की अर्जियों पर, बिना उनका संबंधित विश्वविद्यालय से सत्यापन कराए, पंजीकरण किया ही नहीं जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने बीसीआई के बयान पर चिंता व्यक्त की कि "बिना सत्यापन के वकील कुछ राज्य बार काउंसिल के सदस्य तक बन गए हैं और ऐसे व्यक्तियों ने न्यायिक अधिकारियों के पदों पर भी काम किया हो सकता है।"
पीठ ने अपने फैसले में, जोर देकर कहा कि "न्यायिक प्रक्रिया तक पहुंच उन व्यक्तियों को नहीं दी जा सकती है जो वकील होने का दावा करते हैं लेकिन उनके पास वास्तविक शैक्षणिक योग्यता या डिग्री प्रमाण पत्र नहीं है।"
बीसीआई ने यह भी कहा है कि, "डिग्री प्रमाणपत्रों के सत्यापन में विश्वविद्यालयों द्वारा मांगे गए शुल्कों के कारण सत्यापन प्रक्रिया में कठिनाई आती हैं।" बीसीआई की इस कठिनाई को, ध्यान में रखते हुए, अदालत ने निर्देश दिया कि, "सभी विश्वविद्यालयों और परीक्षा बोर्डों को बिना शुल्क लिए डिग्री की सत्यता की पुष्टि करनी चाहिए। सभी विश्वविद्यालय और परीक्षा बोर्ड शुल्क लिए बिना डिग्रियों की सत्यता की पुष्टि करेंगे और राज्य बार काउंसिल द्वारा मांग पर बिना किसी देरी के कार्रवाई की जाएगी।"
इस मामले की शुरुआत साल 2015 में हुई थी जब, बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने वास्तविक वकीलों की पहचान करने के लिए बीसीआई सर्टिफिकेट और प्लेस ऑफ प्रैक्टिस (सत्यापन) नियम 2015 को अधिसूचित किया था, जो अदालतों और न्यायाधिकरणों के समक्ष सक्रिय रूप से मुकदमेबाजी कर वकीलों के संबंध में हैं। विभिन्न उच्च न्यायालयों के समक्ष, बीसीआई ने, नियमों को चुनौती दी और बाद में सभी मामलों को अंततः सर्वोच्च न्यायालय में, एक साथ सुनवाई के लिए, स्थानांतरित कर दिया गया। न्यायालय ने नवंबर 2022 में राज्य बार काउंसिलों को जारी किए गए बीसीआई, के निर्देश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले एक वकील द्वारा दायर एक आवेदन में वर्तमान आदेश पारित किया, जिसमें याचिकाकर्ता ने दावा किया कि राज्य द्वारा की जा रही सत्यापन प्रक्रिया को बाधित करने से सत्यापन प्रक्रिया प्रभावित हो रही है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, बीसीआई के अध्यक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता मनन कुमार मिश्रा ने पीठ को बताया कि, "मंशा सत्यापन को रोकना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि डिग्री प्रमाणपत्रों की वैधता और वास्तविकता की पुष्टि किए बिना सत्यापन नहीं किया गया है। कठिनाइयों का सामना तब करना पड़ा जब विश्वविद्यालयों ने डिग्री प्रमाणपत्रों के सत्यापन के लिए फीस की मांग की। इस पृष्ठभूमि में, बीसीआई ने डिग्रियों के सत्यापन की देखरेख के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति के गठन का सुझाव दिया।"
बीसीआई प्रमुख का यह तर्क उचित है कि, सत्यापन शुल्क की मांग के कारण इतना व्यापक सत्यापन करना एक कठिन कार्य है। अब सुप्रीम कोर्ट ने, सत्यापन के लिए राज्य को निर्देश दिया है।
वकीलों की बढ़ती संख्या पर सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह भी कहा कि "अधिवक्ताओं की संख्या, जो उस समय, साल 2015 में 16 लाख थी, वर्तमान में लगभग 25.70 लाख होने का अनुमान है। बीसीआई के बयान के अनुसार, 25.70 लाख अधिवक्ताओं में से, लगभग 7.55 लाख फॉर्म सत्यापन के उद्देश्य से प्राप्त हुए थे और 1.99 लाख घोषणा वरिष्ठ अधिवक्ताओं और एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड से प्राप्त हुए थे। इस प्रकार प्राप्त प्रपत्रों की कुल संख्या लगभग 9.22 लाख है। इन आंकड़ों से, पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि राज्य बार काउंसिल में नामांकित अधिकांश अधिवक्ताओं ने अपने सत्यापन प्रपत्र जमा नहीं किए हैं।"
अधिकांश वकीलों ने सत्यापन के लिए फॉर्म ही नही भरे। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि, या तो वे फर्जी डिग्री वाले हैं या उन्होंने अभी तक सत्यापन फॉर्म भरे ही नही। इस प्रकार अभी अधिकांश वकीलों से सत्यापन फॉर्म प्राप्त ही नही हुए। बीसीआई ने यह आशंका जताई कि जिन वकीलों ने सत्यापन फॉर्म नहीं दिए हैं, वे वकालत करने के लिए योग्य नहीं हैं और ऐसे व्यक्तियों की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें बाहर किया जाना चाहिए।
इसी संदर्भ में पीएम डिग्री से जुड़े एक मामले का उल्लेख करना भी समीचीन होगा जिसका फैसला अभी हाल ही में, गुजरात विश्वविद्यालय बनाम मुख्य सूचना आयुक्त सीआईसी के मुकदमे में दिया गया है। गुजरात हाईकोर्ट ने शैक्षणिक डिग्री के मामले को व्यक्तिगत मामला माना है, और उसे सार्वजनिक करने के खिलाफ अपना फैसला दिया है। यहीं यह सवाल उठता है कि यदि डिग्री बीसीआई या किसी संस्थान या चुनाव आयोग में हलफनामा देकर यदि सार्वजनिक पटल पर रख दी गई हो, और उस पर संशय हो तो क्या उस संशय का सार्थक समाधान नहीं किया जाना चाहिए? या उसी संशययुक्त डिग्री को ही, बिना उक्त आपराधिक कृत्य की संभावना को समाप्त किए, मान लिया जाना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट का बीसीआई में पंजीकृत वकीलों की कानून की डिग्री के सत्यापन का आदेश और उसके क्रियान्वयन के लिए गठित कमेटी का निर्णय एक महत्वपूर्ण फैसला है। हालांकि यह काम इतना आसान नहीं है फिर भी बीसीआई को, नए पंजीकृत के लिए प्राप्त आवेदनों के डिग्री सत्यापन के कार्य को अनिवार्य कर देना चाहिए। जिससे नए पंजीकरण के आवदकों का सत्यापन, पंजीकरण के पहले हो जाय और इनका कोई बैकलॉग इकट्ठा न हो सके।
#सुप्रीमकोर्ट #फर्जीडिग्री #बीसीआई
एक तरफ तो सुप्रीम कोर्ट वाट्सएप, ईमेल व फैक्स से समन नोटिस भेजना मान्य करता है तो दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार के कथनानुसार ईमेल से नोटिस भेजना वैध नहीं है! ऐसे में ई-फाइलिंग और वीडियो कांफ्रेंसिंग से सुनवाई वैध कैसे?...कृपया स्पष्ट करें
दुःख भरी ख़बर 😭😭
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Collegium recommend five judges for appointment to Supreme Court.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति पंकज मित्तल जी एवं माननीय न्यायमूर्ति मनोज मिश्र जी को सुप्रीम कोर्ट जज प्रोन्नति के प्रस्ताव की बहुत बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं।💐💐💐💐
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🙏🙏🙏🙏🙏🙏
अरुण कुमार गुप्त (एडवोकेट)
हाईकोर्ट, इलाहाबाद।
Dr Justice D.Y. Chandrachud sworn in as the Chief Justice of the Supreme Court of India at Rashtrapati Bhavan today.
Chief Justice of India Dr. Justice D Y Chandrachud with wife Kalpana Das on the first day in his chambers as the CJI.
सुप्रीम कोर्ट ने 3:2 बहुमत के साथ 10% EWS कोटा को संवैधानिक घोषित किया
सोमवार को, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 103 वें संवैधानिक संशोधन की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जिसने अगड़ी जातियों के बीच आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए 10% आरक्षण की शुरुआत की।
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) यूयू ललित और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस एस रवींद्र भट, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ ने फैसला सुनाया।
पीठ ने चार अलग-अलग फैसले जारी किए, जिनमें सीजेआई यूयू ललित और न्यायमूर्ति रवींद्र भट बहुमत की राय से असहमत थे।
न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी ने फैसला सुनाया कि ईडब्ल्यूएस कोटा संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है क्योंकि यह आर्थिक मानदंडों पर आधारित है।
विशेष रूप से, उन्होंने फैसला सुनाया कि आरक्षण के लिए 50 प्रतिशत की सीमा (इंद्रा साहनी के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित) का उल्लंघन केवल संविधान के अनुच्छेद 16(4) और 16(5) के तहत सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण पर लागू होता है।
एक अलग फैसले में न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी ने न्यायमूर्ति माहेश्वरी से सहमति जताई।
उसने फैसला सुनाया कि राज्य को अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति (एससी / एसटी) के अलावा अन्य समूहों के लिए विशेष प्रावधान करने की अनुमति देने वाले संशोधन को विधायिका द्वारा सकारात्मक कार्रवाई माना जाना चाहिए।
उन्होंने यह भी कहा:
“इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत की सदियों पुरानी जाति व्यवस्था ने आरक्षण की शुरुआत की, जिसके परिणामस्वरूप एससी और एसटी के लिए एक समान अवसर आया। 75 साल के अंत में, हमें सामान्य रूप से आरक्षण पर पुनर्विचार करना चाहिए ”
ईडब्ल्यूएस को बरकरार रखने के अपने फैसले में, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला ने कहा:
“जो उन्नत हैं उन्हें पिछड़े वर्गों से हटा दिया जाना चाहिए ताकि जरूरतमंद लोगों की सहायता की जा सके।” आज की दुनिया में प्रासंगिक बने रहने के लिए पिछड़े वर्गों के निर्धारण के तरीकों पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। “आरक्षण को अनिश्चित काल तक नहीं बढ़ाया जाना चाहिए ताकि यह एक निहित स्वार्थ बन जाए,”
असहमति निर्णय:
अपनी असहमतिपूर्ण राय में, न्यायमूर्ति रवींद्र भट ने कहा कि संशोधन हमें यह विश्वास दिलाता है कि सामाजिक और पिछड़े वर्ग के लाभ प्राप्त करने वालों को किसी तरह बेहतर स्थिति में रखा गया है। यह न्यायालय ने माना है कि 16(1) और (4) समान समानता सिद्धांत के पहलू हैं। इस न्यायालय ने माना है कि यह बहिष्करण समानता संहिता के गैर- भेदभावपूर्ण और गैर-बहिष्करणीय प्रावधान।
न्यायमूर्ति भट्ट के अनुसार, जबकि आर्थिक आरक्षण की अनुमति है, अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों को ईडब्ल्यूएस से बाहर करना उनके खिलाफ भेदभाव के बराबर नहीं है।
उन्होंने आगे कहा कि इंदिरा साहनी के 50 प्रतिशत नियम का उल्लंघन आगे के उल्लंघनों के लिए एक शानदार तरीका बन जाता है, जिसके परिणामस्वरूप विभाजन होगा, और फिर आरक्षण का नियम समानता का अधिकार बन जाएगा और हमें वापस चंपकम दोराराजम में ले जाएगा क्योंकि समानता एक होना था अस्थायी पहलू।
CJI ललित ने जस्टिस भट के आकलन से सहमति जताई।
क्या था मामला?
27 सितंबर को, सुप्रीम कोर्ट ने 103वें संवैधानिक संशोधन की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक बैच की सुनवाई पूरी की, जो अगड़ी जातियों के बीच आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) को 10% आरक्षण प्रदान करता है।
जनहित अभियान और यूथ फॉर इक्वलिटी जैसे गैर सरकारी संगठनों द्वारा दायर याचिकाओं में तर्क दिया गया कि आर्थिक वर्गीकरण आरक्षण का एकमात्र आधार नहीं हो सकता है।
संशोधन अधिनियम सार्वजनिक और निजी शैक्षणिक संस्थानों के साथ-साथ सरकारी रोजगार में “आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों” के नागरिकों के लिए 10% सीटें आरक्षित करता है जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग नहीं हैं।
कोर्ट के समक्ष मुद्दे
क्या 103वां संविधान संशोधन राज्य को आर्थिक मानदंडों के आधार पर आरक्षण सहित विशेष प्रावधान करने की अनुमति देकर संविधान के मौलिक ढांचे का उल्लंघन करता है?
क्या 103वां संविधान संशोधन, राज्य को गैर-सहायता प्राप्त निजी संस्थानों में प्रवेश के लिए विशेष प्रावधान करने की अनुमति देकर, संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है?
क्या 103वें संविधान संशोधन को एसईबीसी/ओबीसी/एससी/एसटी को ईडब्ल्यूएस आरक्षण के दायरे से बाहर कर संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन कहा जा सकता है?
माननीय सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने याचिका संख्या
CIVIL APPEAL NO.2483 of 2020 को निस्तारित करते हुए। 15 October 2020 को अपने आदेश में कहा कि
1 पति के किसी भी रिश्तेदार का मकान, जिसमें महिला कभी घर की तरह रही हो, कानून के तहत ‘शेयर्ड हाउसहोल्ड’ माना जाएगा.
2 बहू को है सास-ससुर के घर में भी रहने का हक
देश में महिलाओं के अधिकारों को लेकर माननी सुप्रीम कोर्ट का एक और बड़ा फैसला दिया है. माननी सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की बेंच ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत बहू को अपने आश्रित ससुराल में रहने का अधिकार है और बहू को पति या परिवार के सदस्यों द्वारा साझा घर से बाहर नहीं निकाला जा सकता है. कोर्ट ने कहा है कि एक महिला घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत उस घर में भी रहने का अधिकार मांग सकती है, जो सिर्फ उसके पति का नहीं बल्कि साझा परिवार का हो और जिसमें वह अपने संबंधों के कारण कुछ समय के लिए रही हो.
घरेलू संबंध में प्रत्येक महिला को साझा घर में निवास करने का अधिकार होगा चाहे उसका कोई अधिकार, टाइटल या समान हित हो या न हो. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि देश में घरेलू हिंसा बड़े पैमाने पर जारी है और हर रोज कई महिलाएं किसी न किसी रूप में हिंसा का सामना करती हैं.
जस्टिस अशोक भूषण, आर सुभाष रेड्डी और एमआर शाह की पीठ ने महिला के लिए 2005 के कानून में दिए गए वास्तविक अर्थ को प्रभावित करने के लिए “ साझा घर“ की परिभाषा की व्याख्या की जो “एक बेटी, एक बहन, एक पत्नी, एक मां, एक साथी या एक अकेली महिला के जीवनकाल के रूप में हिंसा और भेदभाव के कभी खत्म नहीं होने वाले अपने भाग्य को जीती है.
यह देखते हुए कि 2005 का कानून शादी से बाहर के लोगों को भी कवर करते हुए “महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक मील का पत्थर” था, अदालत ने कहा कि “धारा 2 (एस) में दिए गए साझा घर की परिभाषा का मतलब यह नहीं पढ़ा जा सकता है कि यह केवल वो घर हो सकता है जो संयुक्त परिवार का घर है, जिसमें पति एक सदस्य है या जिसमें पीड़ित व्यक्ति के पति का हिस्सा है.
तीन जजों की पीठ ने शीर्ष अदालत के पहले के एक फैसले को खारिज कर दिया जिसमें यह विपरीत विचार था कि किसी भी महिला के साथ एक विवादास्पद संबंध में ऐसा कोई निहित अधिकार नहीं है. दो जजों की बेंच ने तब यह माना था कि पत्नी केवल एक साझा घर में निवास के अधिकार का दावा करने का हकदार है, जिसका अर्थ केवल पति द्वारा किराए पर लिया गया घर या किराए पर लिया गया घर या संयुक्त परिवार से संबंधित घर होगा. जिनमें से पति एक सदस्य है.
अदालत ने कहा कि किसी भी समाज की प्रगति उसकी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और बढ़ावा देने की क्षमता पर निर्भर करती है. संविधान ने महिलाओं को समान अधिकारों और विशेषाधिकारों की गारंटी देते हुए इस देश में महिलाओं की स्थिति में बदलाव की दिशा में कदम बढ़ाया था.2005 के कानून के प्रावधानों से गुजरते हुए, पीठ ने कहा कि वैधानिक संपत्ति में किसी भी तरह के कानूनी हित होने या न होने के बावजूद साझा घरेलू मामलों के तहत निवास के अधिकार की महिला के पक्ष में एक पात्रता प्रदान की गई.
सतीश चंदर आहुजा द्वारा दायर याचिका पर निर्णय में, अदालत ने कहा कि 2005 का कानून महिला के पक्ष में एक उच्च अधिकार देने के लिए पारित किया गया था. पीठ ने कहा, “इस प्रकार, हम इस बात पर विचार कर रहे हैं कि साझा घर वह है जहां पीड़ित महिला उस समय रह रही थी जब आवेदन दाखिल किया गया था या हाल के दिनों में उपयोग से बाहर रखा गया था या वह अस्थायी रूप से अनुपस्थित है.
इस फैसले ने सतीश चंदर अहुजा द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया, जिसमें 2019 के दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसमें फैसला सुनाया गया था कि उनकी बहू स्नेहा आहूजा के पास उनके पति रवीन आहूजा के बीच तलाक के विवाद की स्थिति के बावजूद निवास का अधिकार था .सतीश आहूजा की दलील थी कि उनके बेटे रवीन आहूजा की भी घर में कोई हिस्सेदारी नहीं है क्योंकि संपत्ति उनकी खुद की कमाई थी.
घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत धारा 2 (साझा घर) और 17 (निवास का अधिकार) के प्रावधानों की व्याख्या करने वाली पीठ ने कहा:“… धारा 2 (ओं) में दिए गए साझा घराने की परिभाषा का मतलब यह नहीं पढ़ा जा सकता है कि साझा घर केवल वह हो सकता है जो संयुक्त परिवार का घर है जिसमें पति सदस्य है या जिसमें पीड़ित व्यक्ति का पति हिस्सा है. पिता की इस दलील को खारिज करते हुए कि उनके बेटे का दिल्ली के पॉश न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी इलाके में संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं है
प्रकरण
वास्तव में एक महिला अपने पति व सास ससुर के साथ एक दिल्ली के एक पॉश कॉलोनी के एक घर में रहती थी. शादी के कुछ वर्षों के बाद पति पत्नी में अनबन शुरू हो गई और मामला तलाक की अर्जी तक जा पहुंचा. महिला ने घरेलू हिंसा के तहत पति व सास-ससुर के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया. इसी दौरान ससुर ने बहू से अपना खरीदा घर खाली करने को कहा. महिला द्वारा घर से निकलने से इनकार करने के बाद ससुर ने ट्रायल कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.ट्रायल कोर्ट ससुर के पक्ष में सुनाते हुए महिला को घर खाली करने के लिए आदेश दिया. लेकिन हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को दरकिनार करते हुए मामले को वापस भेजते हुए नए सिरे से विचार करने के लिए कहा. अब सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के उस फैसले को सही ठहराया है.
IN THE SUPREME COURT OF INDIA
CIVIL APPELLATE JURISDICTION
CIVIL APPEAL NO.2483 of 2020
Satish Chandra ahuja vs Sneha Ahuja
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The Delhi High Court for the first time has decided to permit the use of A4 size paper with printing on both sides, for the filings. The recommendation made by the Rules Committee in this regard has been approved by the full court.
⚖️🙏🙏
Next CJI Of INDIA
62 year old youngest charming & My favourite justice mr. D.Y chandrachud sir
Congratulations...💐💐
RTI धारा 19(3) द्वितीय अपील प्रारूप
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मैरिटल रेप तलाक के लिए एक वैध आधार केरल हाईकोर्ट ने 15 महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं:-
केरल हाईकोर्ट ने एक पति द्वारा दायर दो अपीलों को खारिज करते हुए कहा कि वैवाहिक बलात्कार यानी मैरिटल रेप तलाक का दावा करने का एक वैध आधार है। हालांकि, भारत में वैवाहिक बलात्कार को दंडित नहीं किया गया है। दरअसल, पति ने अपनी अपील में फैमिली कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी। न्यायमूर्ति ए. मोहम्मद मुस्ताक और न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ की खंडपीठ ने पत्नी को तलाक की मंजूरी देते हुए कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं
1. पत्नी की स्वायत्तता की अवहेलना करने वाला पति का अनैतिक स्वभाव वैवाहिक बलात्कार है, हालांकि इस तरह के आचरण को दंडित नहीं किया जा सकता है, यह शारीरिक और मानसिक क्रूरता के दायरे में आता है
2. आधुनिक सामाजिक न्यायशास्त्र में, विवाह में पति-पत्नी को समान भागीदार के रूप में माना जाता है और पति पत्नी पर उसके शरीर के संबंध में या व्यक्तिगत स्थिति के संदर्भ में किसी भी श्रेष्ठ अधिकार का दावा नहीं कर सकता है। पत्नी की इच्छा के विरुद्ध पति द्वारा उसकी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना वैवाहिक बलात्कार के अलावा और कुछ नहीं है
3. अपनी शारीरिक और मानसिक अखंडता के सम्मान के अधिकार में शारीरिक अखंडता शामिल है, शारीरिक अखंडता का कोई भी अनादर या उल्लंघन व्यक्तिगत स्वायत्तता का उल्लंघन है
4. स्वायत्तता अनिवार्य रूप से उस भावना या स्थिति को संदर्भित करती है जिस पर कोई व्यक्ति उस पर नियंत्रण रखने का विश्वास करता है। विवाह में, पति या पत्नी के पास ऐसी निजता होती है, जो व्यक्तिगत रूप से उसके अंदर निहित अमूल्य अधिकार है। इसलिए, वैवाहिक निजता अंतरंग रूप से और आंतरिक रूप से व्यक्तिगत स्वायत्तता से जुड़ी हुई है और किसी भी तरह की घुसपैठ, शारीरिक रूप से या अन्यथा इस तरह से निजता का उल्लंघन होगा
5. केवल इस कारण से कि कानून, दंड संहिता के तहत वैवाहिक बलात्कार को मान्यता नहीं देता है, यह अदालत को तलाक देने के लिए क्रूरता के रूप में इसे मान्यता देने से नहीं रोकता है। इसलिए, हमारा विचार है कि वैवाहिक बलात्कार तलाक का दावा करने का एक वैध आधार है
6. जीवनसाथी के धन और सेक्स की अतृप्त इच्छा भी क्रूरता की श्रेणी में आएगी।
7. व्यभिचार के निराधार आरोप भी मानसिक क्रूरता का गठन करेंगे
8. इस तरह की कार्यवाही में तलाक के आधार पर की गई दलीलें पुनर्मिलन के किसी भी अवसर को खारिज करने वाले रिश्ते के लिए अधिक विनाशकारी हैं
9. विवाह में पति या पत्नी के पास एक विकल्प होता है कि वह पीड़ित न हो, जो प्राकृतिक कानून और संविधान के तहत गारंटीकृत स्वायत्तता के लिए मौलिक है। अदालत द्वारा तलाक से इनकार करके कानून पति या पत्नी को उसकी इच्छा के विरुद्ध पीड़ित होने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है
10. समाज में विवाह के बदले हुए परिदृश्य में सामाजिक दर्शन से व्यक्तिगत दर्शन में स्थानांतरित होने पर हमें डर है कि क्या वर्तमान तलाक कानून संवैधानिकता की कसौटी पर खरा उतरेगा। ऐसे कानून में व्यक्तिगत पसंद और व्यक्ति के सर्वोत्तम हित के बीच उचित संतुलन नहीं है
11. तलाक के कानून की रूपरेखा व्यक्तियों को अपने मामलों पर निर्णय लेने में मदद करने के उद्देश्य से होनी चाहिए। इस ढांचे को विभिन्न स्तरों पर एक मंच को बढ़ावा देना चाहिए ताकि व्यक्ति स्वतंत्र विकल्प का प्रयोग कर सकें
12. अदालत को व्यक्ति की पसंद पर निर्णय लेने की कोई शक्ति नहीं होनी चाहिए। व्यक्तियों को अपने मामलों पर निर्णय लेने में मदद करने के लिए अदालत को अपनी शक्ति को वैज्ञानिक तरीके से स्पष्ट करना चाहिए
13. हमारे कानून को वैवाहिक नुकसान और मुआवजे से निपटने के लिए भी तैयार होना चाहिए। हमें मानवीय समस्याओं से निपटने के लिए मानवीय सोच से प्रतिक्रिया देने के लिए एक कानून बनाने की आवश्यकता है
14. उपरोक्त पंक्ति में कम से कम विवाह और तलाक के लिए सभी समुदायों के लिए एक समान कानून होने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है। व्यक्ति व्यक्तिगत कानून के अनुसार अपना विवाह करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन उन्हें धर्मनिरपेक्ष कानून के तहत विवाह के अनिवार्य अनुष्ठापन से मुक्त नहीं किया जा सकता है
15. समय की मांग है कि विवाह और तलाक धर्मनिरपेक्ष कानून के तहत होना चाहिए। हमारे देश में विवाह कानूनों में बदलाव करने का समय आ गया है।
कोर्ट किसी के साथ हुई नाइंसाफी की भरपाई किसी बेगुनाह को सज़ा देकर नहीं कर सकता:-सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने छह साल की बच्ची से कथित बलात्कार और हत्या के मामले में मौत की सजा पाए व्यक्ति को बरी कर दिया कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष के गवाहों द्वारा दिए गए बयानों में गंभीर अंतर्विरोध हैं और ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट दोनों ने इसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस वी रामसुब्रमण्यम की बेंच ने मामले की सुनवाई की। पीठ ने कहा, "कोर्ट किसी के साथ हुई नाइंसाफी की भरपाई किसी बेगुनाह को सज़ा देकर नहीं कर सकता।
पीठ ने यह भी कहा कि आरोपी इतना गरीब है कि वह सत्र न्यायालय में भी एक वकील को नियुक्त करने का जोखिम नहीं उठा सकता था। जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अदालत में उनके बार-बार अनुरोध के बाद, एक वकील की सेवा एमिकस के रूप में प्रदान की गई थी। पीठ ने जांच ठीक से नहीं करने के लिए अभियोजन पक्ष की भी आलोचना की। कोर्ट ने कहा, " हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि यह 6 साल की बच्ची के साथ रेप और हत्या का वीभत्स मामला है। अभियोजन पक्ष ने जांच ठीक से नहीं कर पीड़िता के परिवार के साथ अन्याय किया है। बिना किसी सबूत के अपीलकर्ता पर दोष तय करके अभियोजन पक्ष ने अपीलकर्ता के साथ अन्याय किया है। कोर्ट किसी के साथ हुई नाइंसाफी की भरपाई किसी बेगुनाह को सज़ा देकर नहीं कर सकता।" कोर्ट आरोपी के खिलाफ अभियोजन का मामला यह था कि उसने होली के मौके पर अपनी करीब 6 साल की भतीजी को डांस और गाने की परफॉर्मेंस दिखाने के बहाने साथ लेकर गया और उसके बाद रेप कर उसकी हत्या कर दी। सत्र न्यायालय ने उसे आईपीसी की धारा 302 और 376 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दोषी ठहराया और मौत की सजा सुनाई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनकी अपील को खारिज करते हुए मौत की सजा की पुष्टि कर दी। अपील में, अपीलकर्ता ने कुछ अंतर्विरोधों के आलोक में (i) पीडब्लू 1 से 3 की गवाही की विश्वसनीयता के संबंध में विवाद उठाया; (ii) न्यायालय को प्राथमिकी अग्रेषित करने में पुलिस की ओर से विलंब के परिणाम; (iii) फोरेंसिक/चिकित्सा साक्ष्य प्रस्तुत करने में अभियोजन की विफलता और उसका प्रभाव और (iv) जिस तरीके से संहिता की धारा 313 के तहत पूछताछ की गई और दर्ज किए गए निष्कर्षों पर उसका प्रभाव।
कोर्ट ने एक बार फिर जल्द फैसला देने की जरूरत पर जोर दिया अदालत ने कहा कि आरोपी ने शुरू से ही बचाव किया था कि उसे स्थानीय रूप से शक्तिशाली व्यक्ति के इशारे पर फंसाया गया था, जिसकी पत्नी गांव की प्रधान है। रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का हवाला देते हुए पीठ ने यह भी कहा कि (i) वह स्थान जहां पुलिस ने पहली बार शव देखा था, के संबंध में कई विरोधाभास हैं; (ii) वह व्यक्ति जिसने शव लिया था; और (iii) जिस स्थान पर शव ले जाया गया था और (iv) जांच के आयोजन के स्थान, तिथि और समय के बारे में विरोधाभास है। अदालत ने कहा कि ये विरोधाभास पीडब्लू 1 से 3 के साक्ष्य को पूरी तरह से अविश्वसनीय बनाते हैं। अदालत ने यह भी देखा कि विशेष रूप से इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में क्षेत्राधिकार वाली अदालत में प्राथमिकी को प्रेषित करने में 5 दिनों की देरी घातक है। अदालत ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष ने आरोपी (अपीलकर्ता) को एक चिकित्सक द्वारा जांच के अधीन करने की परवाह नहीं की। इस पर कोर्ट ने कहा, "इस मामले में अभियोजन की विफलता अपीलकर्ता को चिकित्सा परीक्षण के अधीन करने के लिए निश्चित रूप से अभियोजन के मामले के लिए घातक है, खासकर जब ओकुलर सबूत भरोसेमंद नहीं पाए जाते हैं। पीड़ित द्वारा पहने गए सलवार पर रक्त/वीर्य के दाग पर फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला, अभियोजन की विफलता है।" अपील की अनुमति देते हुए पीठ ने कहा, "उसके द्वारा दिए गए बयानों में गंभीर रूप से निहित अंतर्विरोधों को दोनों अदालतों द्वारा विधिवत नोट नहीं किया गया है। जब अपराध जघन्य है, तो न्यायालय को भौतिक साक्ष्य को उच्च जांच के तहत रखना आवश्यक है। तर्क पर सावधानीपूर्वक विचार करने पर जैसा कि उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि की गई है, हम पाते हैं कि पीडब्ल्यू 1 से 3 तक के बयानों के आकलन में पर्याप्त सावधानी नहीं बरती गई है। किसी ने यह नहीं बताया कि अदालत को प्राथमिकी किसने भेजी और हैरानी की बात है कि पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट की कॉपी भी एसएचओ को 13.03.2012 को मिली थी, हालांकि पोस्टमॉर्टम 09.03.2012 को किया गया था। यह वही तारीख थी जिस दिन एफआईआर कोर्ट में पहुंची थी। कारक निश्चित रूप से अभियोजन द्वारा अनुमानित कहानी पर एक मजबूत संदेह पैदा करते हैं, लेकिन दोनों न्यायालयों ने इसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया।" नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली के प्रोजेक्ट 39A ने सुप्रीम कोर्ट में अपीलकर्ता को कानूनी सहायता प्रदान की। अपीलकर्ता का प्रतिनिधित्व सीनियर एडवोकेट एस नागमुथु ने किया।
केस टाइटल-छोटकाउ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2022 | सीआरए 361-362 ऑफ 2018 | 28 सितंबर 2022 |
The Supreme Court on Friday said preventive detention is a serious invasion of personal liberty and therefore whatever little safeguards the Constitution and the law authorizing such action provide assume utmost importance and must be strictly adhered to.
A bench of Chief Justice UU Lalit and Justices S Ravindra Bhat and JB Pardiwala made these observations as it quashed an order of preventive detention passed by the Tripura government dated November 12, 2021 and directed forthwith release of an accused for offences under the Prevention of Illicit Traffic in Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act, 1988 (PIT NDPS).
Senior Advocate R Venkataramani Appointed Attorney General For India
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सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण फैसला: चार्जशीट दायर करने के बाद भी रद्द हो सकती है FIR
पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट एफआईआर रद्द करने की याचिका को सुन सकता था। यहां तक कि इस याचिका के लंबित रहते यदि चार्जशीट दायर भी हो गई है तो भी इसे सुना जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में व्यवस्था दी है कि चार्जशीट दायर होने के बाद भी आरोपी एफआईआर रद्द करवाने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत उच्च अदालत में याचिका दे सकता है।
अब तक कानून यही है कि किसी आपराधिक मामले में चार्जशीट दायर हो जाने पर उसमें धारा 482 के तहत एफआईआर रद्द करने की याचिका स्वीकार्य नहीं होती, लेकिन कोर्ट के इस फैसले से आपराधिक न्यायशास्त्र की स्थिति में अभियुक्तों के पक्ष में बड़ा बदलाव आ गया है।
न्यायमूर्ति एसए बोब्डे और न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव की पीठ ने यह फैसला देते हुए कहा कि यह मानना अन्याय होगा कि किसी व्यक्ति के खिलाफ कार्यवाही में एफआईआर की स्टेज पर ही हस्तक्षेप किया जा सकता है।
सर्वोच्च अदालत ने यह माना कि उच्च न्यायालय, धारा 482 CrPC के तहत दायर याचिका, जिसमे FIR को रद्द करने की मांग की गयी है, पर विचार कर सकता है भले ही उस याचिका के लंबित रहते चार्ज शीट दायर करदी गई हो।
“इस धारा के शब्दों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो न्यायालय की शक्ति के प्रयोग को, न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग या मिसकैरेज ऑफ़ जस्टिस को केवल FIR के चरण तक प्रतिबंधित करता हो। यह कानून का सिद्धांत है कि उच्च न्यायालय, जब डिस्चार्ज एप्लिकेशन 2 (2011) 7 SCC 59 7 ट्रायल कोर्ट के पास लंबित है, तब भी Cr.PC की धारा 482 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग कर सकता है।
वास्तव में, यह धारणा ग़लत होगी कि एक व्यक्ति के खिलाफ शुरू की कार्यवाही के साथ हस्तक्षेप केवल FIR के चरण तक किया जा सकता है, परन्तु उसके बाद नहीं, खासतौर से तब नहीं जब आरोपों को चार्जशीट में बदल दिया गया हो। इसके विपरीत, यह कहा जा सकता है कि यदि FIR के बाद मामला चार्जशीट के चरण में पहुँच गया है, तो FIR के कारण होने वाली प्रक्रिया का दुरुपयोग बढ़ जाता है। किसी भी अदालत की शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए दंड प्रक्रिया में इस शक्ति का प्रावधान दिया गया है। “
पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट एफआईआर रद्द करने की याचिका को सुन सकता था। यहां तक कि इस याचिका के लंबित रहते यदि चार्जशीट दायर भी हो गई है तो भी इसे सुना जा सकता है।
चार्जशीट के बाद दुरुपयोग और बढ़ जाएगा–
कोर्ट ने फैसले में कहा कि धारा 482 में यह कहीं नहीं है, जिसमें कोर्ट को कानून का दुरुपयोग या अन्याय होने से रोकने के लिए सिर्फ एफआईआर की स्टेज पर ही प्रतिबंधित किया हो। यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि हाईकोर्ट धारा 482 के तहत क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर सकता है। यहां तक कि हाईकोर्ट इस कार्यवाही को ट्रायल कोर्ट में डिस्चार्ज अर्जी लंबित होने पर भी जारी रख सकता है।
कोर्ट ने कहा कि यह मानना अन्याय होगा कि अभियुक्त के खिलाफ चार्जशीट दायर हो चुकी है और अब उसकी रिपोर्ट रद्द करने की याचिका नहीं सुनी जा सकती। इसके उलट एफआईआर के कारण प्रक्रिया का दुरुपयोग उस समय और ज्यादा बढ़ जाएगा, जब यह जांच के बाद चार्जशीट में तब्दील हो जाएगी। इसमें कोई शक नहीं है कि अन्याय तथा प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने की शक्ति हर कोर्ट को दी गई है।
कोई अपराध साबित नहीं होता–
यह फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आनंद मोहता के खिलाफ प्रकरण में कहा कि यह मामला दीवानी प्रकृति का है इसमें कहीं कोई अपराध साबित नहीं होता। हम मानते हैं कि एक करोड़ रुपये की सुरक्षा राशि को अभियुक्त द्वारा हड़प लेना विशुद्ध रूप से दीवानी मामला है। हम यह भी देख रहे हैं कि इस मामले में शिकायतकर्ता ने इस राशि को वापस लेने के लिए एफआईआर दर्ज करने के अलावा कोई और प्रयास नहीं किए। इससे साफ है कि यह अभियोजन दुर्भावनापूर्ण, न टिकने योग्य और अभियुक्त को परेशान करने की नीयत से किया गया है।
क्या है मामला–
आनंद कुमार मोहता ने एक संपत्ति विकसित करने के लिए बिल्डर से अनुबंध किया था, लेकिन बाईलाज में पता लगा कि संपत्ति को गगनचुंबी इमारत नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि यह लुटियन जोन में है। इसके बाद उसने बिल्डर को लिखा कि वह संपत्ति विकसित नहीं करवाना चाहता, लेकिन उसने बिल्डर से लिए एक करोड़ रुपये की सुरक्षा राशि नहीं लौटाई। बिल्डर ने एफआईआर दर्ज करवा दी। इसे रद्द करवाने के लिए मोहता दिल्ली हाईकोर्ट गए, लेकिन कोर्ट ने कहा कि मामले में प्रारंभिक जांच चल रही है और याचिका रद्द कर दी। इसके बाद वह सुप्रीम कोर्ट आए, लेकिन तब तक पुलिस ने चार्जशीट दायर कर दी। कोर्ट में कहा गया कि चार्जशीट दायर होने के बाद एफआईआर रद्द करने की याचिका नहीं सुनी जा सकती।
केस टाइटल – आनंद कुमार मोहता बनाम राज्य (दिल्ली सरकार)
Content Courtesy : JP Live 24
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