Truth knowledge of ved and Geeta

Truth knowledge of ved and Geeta

Share

Contact information, map and directions, contact form, opening hours, services, ratings, photos, videos and announcements from Truth knowledge of ved and Geeta, Education, Dombivli.

13/03/2025

राम इंसान हो कर भी भगवान कहलाए ।
क्यों ? देखिए
🚩🚩🚩🙇🙇📢📢🚨📢

12/03/2025

Ved or Geeta shastro ke Anushar dowary free marriage.

09/03/2025

*राम रंग की होली* | देखिए हमारा विशेष कार्यक्रम *रविवार, 09 मार्च 2025 ⏰ सुबह 11 बजे से Live* 📺 Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj page और YouTube Channel पर।

03/02/2025

Bhakto ka Mukti

05/03/2024

#अयोध्या_भंडारा

29/01/2023

#गहरीनजरगीता_में_Part_39 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#गहरीनजरगीता_में_Part_40
हम पढ़ रहे है "पुस्तक गहरी नज़र गीता में"..........
(74-76)

‘‘सर्व प्रभुओं की आयु’’

अध्याय 8 का श्लोक 17

सहस्त्रयुगपर्यन्तम्, अहः,यत्, ब्रह्मणः, विदुः,रात्रिम्,
युगसहस्त्रान्ताम्, ते, अहोरात्रविदः, जनाः।।17।।

अनुवाद : (ब्रह्मणः) अक्षर पुरूष यानि परब्रह्म का (यत्) जो (अहः) एक दिन है उसको (सहस्त्रयुगपर्यन्तम्) एक हजार युग की अवधि वाला और (रात्रिम्) रात्रिको भी (युगसहस्त्रान्ताम्) एक हजार युग तक की अवधि वाली (विदुः) तत्वसे जानते हैं (ते) वे (जनाः) तत्वदर्शी संत (अहोरात्रविदः) दिन-रात्री के तत्व को जानने वाले हैं। (17)

केवल हिन्दी अनुवाद : अक्षर पुरूष यानि परब्रह्म का जो एक दिन है उसको एक हजार युग की अवधि वाला और रात्रि को भी एक हजार युग तक की अवधि वाली तत्व से जानते हैं वे तत्वदर्शी संत परब्रह्म के दिन-रात्री के तत्व को जाननेवाले हैं। (17)

विशेषः- सात त्रिलोकिय ब्रह्मा (काल के रजगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात त्रिलोकिय विष्णु (काल के सतगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक
त्रिलोकिय शिव (ब्रह्म-काल के तमोगुण पुत्र) की मृत्यु होती है। ऐसे 70000 (सतर हजार अर्थात् 0.7 लाख) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के उपरान्त एक ब्रह्मलोकिय महाशिव (सदाशिव अर्थात् काल ब्रह्म) की मृत्यु होती है। एक ब्रह्मलोकिय महाशिव की आयु जितना एक युग परब्रह्म (अक्षर पुरूष)
का हुआ। ऐसे एक हजार युग अर्थात् एक हजार ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्मलोक में स्वयं काल ही महाशिव रूप में रहता है) की मृत्यु के बाद काल के इक्कीस ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है।
इसलिए यहाँ पर परब्रह्म के एक दिन जो एक हजार युग का होता है तथा इतनी ही रात्री होती है।
लिखा है।
(1) रजगुण ब्रह्मा की आयु :- ब्रह्मा का एक दिन एक हजार चतुर्युग का है तथा इतनी ही रात्री है। (एक चतुर्युग में 43,20,000 मनुष्यों वाले वर्ष होते हैं) एक महिना तीस दिन रात का है,
एक वर्ष बारह महिनों का है तथा सौ वर्ष की ब्रह्मा जी की आयु है। जो सात करोड़ बीस लाख चतुर्युग की है।
(2) सतगुण विष्णु की आयु :- श्री ब्रह्मा जी की आयु से सात गुणा अधिक श्री विष्णु जी की आयु है अर्थात् पचास करोड़ चालीस लाख चतुर्युग की श्री विष्णु जी की आयु है।
(3) तमगुण शिव की आयु :- श्री विष्णु जी की आयु से श्री शिव जी की आयु सात गुणा अधिक है अर्थात् तीन अरब बावन करोड़ अस्सी लाख चतुर्युग की श्री शिव की आयु है।
(4) काल ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष की आयु :- सात त्रिलोकिय ब्रह्मा (काल के रजगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात त्रिलोकिय विष्णु (काल के सतगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय शिव (ब्रह्म/काल के तमोगुण पुत्र) की मृत्यु होती है। ऐसे 70000 (सतर हजार अर्थात् 0.7 लाख) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के उपरान्त एक ब्रह्मलोकिय महा शिव (सदाशिव अर्थात् काल) की मृत्यु होती है। एक ब्रह्मलोकिय महाशिव की आयु जितना एक युग परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का हुआ। ऐसे एक हजार युग का परब्रह्म का एक दिन होता है। परब्रह्म के एक दिन के समापन के पश्चात् काल ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है तथा काल व प्रकृति देवी(दुर्गा) की मृत्यु होती है। परब्रह्म की रात्री (जो एक हजार युग की होती है) के समाप्त होने पर दिन के प्रारम्भ में काल व दुर्गा का पुनर् जन्म होता है फिर ये एक ब्रह्मण्ड में पहले की भांति सृष्टि प्रारम्भ करते हैं। इस प्रकार परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष का एक
दिन एक हजार युग का होता है तथा इतनी ही रात्रि है।
अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म की आयु :- परब्रह्म का एक युग ब्रह्मलोकीय शिव अर्थात् महाशिव (काल ब्रह्म) की आयु के समान होता है। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का तथा इतनी ही रात्रि होती है। इस प्रकार परब्रह्म का एक दिन-रात दो हजार युग का हुआ। एक महिना 30 दिन का एक वर्ष 12 महिनों का तथा परब्रह्म की आयु सौ वर्ष की है। इस से सिद्ध है कि परब्रह्म
अर्थात् अक्षर पुरूष भी नाशवान है। इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 तथा अध्याय 8 श्लोक
20 से 22 में किसी अन्य पूर्ण परमात्मा के विषय में कहा है जो वास्तव में अविनाशी है।

नोट :- गीता जी के अन्य अनुवाद कर्ताओं ने ब्रह्मा का एक दिन एक हजार चतुर्युग का लिखा है जो उचित नहीं है। क्योंकि मूल संस्कृत में सहंसर युग लिखा है न की चतुर्युग। तथा ब्रह्मणः लिखा है न कि ब्रह्मा। तत्वज्ञान के अभाव से अर्थों का अनर्थ किया है।
भावार्थ - गीता ज्ञान दाता प्रभु ने केवल इतना ही बताया है कि यह संसार उल्टे लटके वृक्ष तुल्य जानो। ऊपर जड़ें (मूल) तो पूर्ण परमात्मा है। नीचे टहनीयां आदि अन्य हिस्से जानों। इस
संसार रूपी वृक्ष के प्रत्येक भाग का भिन्न-भिन्न विवरण जो संत जानता है वह तत्वदर्शी संत है जिसके विषय में गीता अध्याय 4 श्लोक नं. 34 में कहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक नं. 2-3 में
केवल इतना ही बताया है कि तीन गुण रूपी शाखा हैं। यहां विचारकाल में अर्थात् गीता में आपको में (गीता ज्ञान दाता) पूर्ण जानकारी नहीं दे सकता क्योंकि मुझे इस संसार की रचना के आदि व अंत का ज्ञान नहीं है। उस के लिए गीता अध्याय 4 श्लोक नं. 34 में कहा है कि किसी तत्वदर्शी संत से उस पूर्ण परमात्मा का ज्ञान जानों इस गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में उस तत्वदर्शी संत की पहचान बताई है कि वह संसार रूपी वृक्ष के प्रत्येक भाग का ज्ञान कराएगा। उसी से पूछो। गीता अध्याय 15 के श्लोक 4 में कहा है कि उस तत्वदर्शी संत के मिल जाने के पश्चात् उस परमेश्वर के परम पद की खोज करनी चाहिए अर्थात् उस तत्वदर्शी संत के बताए अनुसार साधना करनी चाहिए जिससे पूर्ण मोक्ष(अनादि मोक्ष) प्राप्त होता है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मैं भी उसी की शरण में हूँ। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में स्पष्ट किया है कि तीन प्रभु हैं एक क्षर पुरूष (ब्रह्म) दूसरा अक्षर पुरूष (परब्रह्म) तीसरा परम अक्षर पुरूष (पूर्ण ब्रह्म)। क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष वास्तव में
अविनाशी नहीं हैं। वह अविनाशी परमात्मा तो इन दोनों से अन्य ही है। वही तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण पोषण करता है। उस संसार रूपी वृक्ष का चित्र देखें इसी पुस्तक की पृष्ठ संख्या 71 पर तथा संक्षिप्त विवरण निम्न पढ़ें :-
उपरोक्त श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16-17 में यह प्रमाणित हुआ कि उलटे लटके हुए संसार रूपी वृक्ष की मूल अर्थात् जड़ तो परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म है जिससे पूर्ण वृक्ष का पालन होता है तथा वृक्ष का जो हिस्सा पृथ्वी के बाहर जमीन के साथ दिखाई देता है वह तना होता है उसे अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म जानों। उस तने से ऊपर चल कर अन्य मोटी डार निकलती है उनमें से एक डार को ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष जानों तथा उसी डार से अन्य तीन शाखाऐं
निकलती हैं उन्हें ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जानों तथा शाखाओं से आगे पत्ते रूप में सांसारिक प्राणी जानों। उपरोक्त गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में स्पष्ट है कि क्षर पुरुष (ब्रह्म) तथा अक्षर पुरुष (परब्रह्म) तथा इन दोनों के लोकों में जितने प्राणी हैं उनके स्थूल शरीर तो नाशवान हैं तथा
जीवात्मा अविनाशी है अर्थात् उपरोक्त दोनों प्रभु व इनके अन्तर्गत प्राणी नाशवान हैं। भले ही अक्षर पुरुष(परब्रह्म) को अविनाशी कहा है परन्तु वास्तव में अविनाशी परमात्मा तो इन दोनों से अन्य है। वह तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका पालन-पोषण करता है। उपरोक्त विवरण में तीन प्रभुओं का भिन्न-भिन्न विवरण दिया है।
उपरोक्त तीनों परमात्माओं की स्थिती को स्पष्ट करने के लिए उदाहरण :- (1)जैसे एक चाय पीने का प्याला होता है जो सफेद मिट्टी का बना होता है। जो हाथ से छुटते ही जमीन पर गिरते ही टुकड़े-2 हो जाता है। यह क्षर प्याला जानो। एैसी स्थिती ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष की जाने।
(2) एक प्याला इस्पात (स्टील) का बना होता है। जो मिट्टी के प्याले से अधिक स्थाई है। परन्तु विनाश इस्पात का भी होता है। भले ही समय अधिक लगता है। इसी प्रकार परब्रह्म को अक्षर पुरूष।अर्थात् अविनाशी प्रभु कहा है क्योंकि परब्रह्म की मृत्यु उस समय होती है जिस समय तक क्षर पुरूष अर्थात् काल की मृत्यु 36000 (छःत्तीस हजार) बार हो चुकी होती है। परन्तु फिर भी अक्षर पुरूष वास्तव में अविनाशी नहीं है।
इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि वास्तव में अविनाशी परमात्मा तो इन दोनों (क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष) से दूसरा ही है वही तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण
पोषण करता है वही वास्तव में परमात्मा कहा जाता है।
यह प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 20,21,22 में भी है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अध्याय 8 श्लोक 18 में जिस अव्यक्त के विषय में कहा है उससे दुसरा जो सनातन अव्यक्त भाव है वह परम दिव्य पुरूष सब प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। (श्लोक 20) वही अव्यक्त
अक्षर इस नाम से कहा गया है उसी पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति को परम गति कहते हैं। जिस सनातन अव्यक्त परमात्मा को प्राप्त होकर साधक वापस नहीं आते वह मेरा भी परम धाम है अर्थात् मेरा भी उपेक्षित धाम है। (21) हे पार्थ जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्व प्राणी आते हैं जिस परम पुरूष से यह समस्त जगत परिपूर्ण है वह सनातन अव्यक्त अर्थात् परम पुरूष तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त
होने योग्य है। यही प्रमाण गीता अध्याय 3 श्लोक 14-15 में भी है कहा है कि सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते है अन्न की उत्पति वर्षा से होती है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान शास्त्राविधि अनुसार कर्मों से होती है। कर्म ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष से उत्पन्न हुए क्योंकि हम ब्रह्म काल के लोक में आए तो कर्म करने पड़े क्योंकि यहां कर्म फल ही मिलता है। सतलोक में बिना कर्म ही सर्व फल प्रभु कृपा से प्राप्त होता है। ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष की उत्पत्ति भी अविनाशी
परमात्मा से हुई। इससे स्पष्ट है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठीत है परम अक्षर परमात्मा के विषय में गीता अध्याय 8 श्लोक 1,8,9,10 में वर्णन हैं उपरोक्त गीता अध्याय 3 श्लोक 14 से 15 में भी स्पष्ट है कि ब्रह्म काल की उत्पति परम अक्षर पुरूष से हुई वही परम अक्षर ब्रह्म ही यज्ञों में पूज्य है।

क्रमशः________________।
(अब आगे अलगे भाग में)

••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। साधना चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry

29/01/2023

पानी से पैदा नही , स्वसा नही शरीर , जाका नाम कबीर।।

28/01/2023

#गहरीनजरगीता_में_Part_38 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#गहरीनजरगीता_में_Part_39
हम पढ़ रहे है "पुस्तक गहरी नज़र गीता में"..........
(70-73)

‘‘पवित्र श्रीमद्भगवत गीता में सृष्टि रचना का प्रमाण‘‘

(दुर्गा तथा काल ब्रह्म की मैथुन क्रिया से ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की उत्पत्ति)

इसी का प्रमाण पवित्र गीता जी अध्याय 14 श्लोक 3 से 5 तक है। ब्रह्म (काल) कह रहा है कि प्रकृति (दुर्गा) तो मेरी पत्नी है, मैं ब्रह्म(काल) इसका पति हूँ। हम दोनों के संयोग से सर्व प्राणियों सहित तीनों गुणों (रजगुण - ब्रह्मा जी, सतगुण - विष्णु जी, तमगुण - शिवजी) की उत्पत्ति
हुई है। मैं (ब्रह्म) सर्व प्राणियों का पिता हूँ तथा प्रकृति (दुर्गा) इनकी माता है। मैं इसके उदर में बीज स्थापना करता हूँ जिससे सर्व प्राणियों की उत्पत्ति होती है।

यही प्रमाण अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16, 17 में भी है।
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 1

ऊर्ध्वमूलम्, अधःशाखम्, अश्वत्थम्, प्राहुः, अव्ययम्,
छन्दांसि, यस्य, पर्णानि, यः, तम्, वेद, सः, वेदवित् ।।1।।

अनुवाद : (ऊर्ध्वमूलम्) ऊपर को पूर्ण परमात्मा आदि पुरुष परमेश्वर रूपी जड़ वाला (अधःशाखम्) नीचे को शाखा वाला (अव्ययम्) अविनाशी (अश्वत्थम्) विस्त्तारित, पीपल का वृक्ष रूप संसार है (यस्य) जिसके (छन्दांसि) छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ (पर्णानि) पत्ते (प्राहुः) कहे हैं (तम्) उस संसार रूप वृक्षको (यः) जो (वेद) सर्वांगों सहित जानता है (सः) वह (वेदवित्) पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है। (1)

केवल हिन्दी अनुवाद : गीता का ज्ञान सुनाने वाले प्रभु ने कहा कि ऊपर को पूर्ण परमात्मा आदि पुरुष परमेश्वर रूपी जड़ वाला नीचे को शाखा वाला अविनाशी विस्त्तारित, पीपल का वृक्ष रूप संसार है जिसके छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ पत्ते कहे हैं उस संसार रूप वृक्ष को जो सर्वांगों सहित जानता है वह पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है। (1)

भावार्थ : गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में जिस तत्वदर्शी संत के विषय में कहा है, उसकी पहचान अध्याय 15 श्लोक 1 में बताई है कि वह तत्वदर्शी संत कैसा होगा जो संसार रूपी वृक्ष का
पूर्ण विवरण बता देगा कि मूल तो पूर्ण परमात्मा है, तना अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म है, डार ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष है तथा शाखा तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव
जी)है तथा पात रूप संसार अर्थात् सर्व ब्रह्मण्ड़ों का विवरण बताएगा वह तत्वदर्शी संत है।
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 2

अधः, च, ऊर्ध्वम्, प्रसृताः, तस्य, शाखाः, गुणप्रवृद्धाः, विषयप्रवालाः, अधः, च, मूलानि, अनुसन्ततानि,
कर्मानुबन्धीनि, मनुष्यलोके।।2।।

अनुवाद : (तस्य) उस वृक्षकी (अधः) नीचे (च) और (ऊर्ध्वम्) ऊपर (गुणप्रवृद्धाः) तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण,
विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण रूपी (प्रसृता) फैली हुई (विषयप्रवालाः) विकार- काम क्रोध, मोह, लोभ अहंकार रूपी कोपल (शाखाः) डाली ब्रह्मा, विष्णु, शिव (कर्मानुबन्धीनि) जीवको कर्मोमें बाँधने की (अपि) भी (मूलानि) जड़ें मुख्य कारण हैं (च) तथा (मनुष्यलोके) मनुष्यलोक अर्थात् पृथ्वी लोक में (अधः) नीचे - नरक, चौरासी लाख जूनियों में (ऊर्ध्वम्) ऊपर स्वर्ग लोक आदि में (अनुसन्ततानि) व्यवस्थित किए हुए हैं।(2)

केवल हिन्दी अनुवाद : उस वृक्षकी नीचे और ऊपर तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण,
शिव-तमगुण रूपी फैली हुई डाली जीवको कर्मों में बाँधने की भी मुख्य कारण हैं तथा मनुष्य लोक अर्थात्
पृथ्वी लोक में, नीचे नरक, चौरासी लाख जूनियों में ऊपर स्वर्ग लोक आदि में व्यवस्थित किए हुए हैं।(2)

गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 3

न, रूपम्, अस्य, इह, तथा, उपलभ्यते, न, अन्तः, न, च, आदिः, न, च,
सम्प्रतिष्ठा, अश्वत्थम्, एनम्, सुविरूढमूलम्, असंगशस्त्रेण, दृढेन, छित्वा।।3।।

अनुवाद : (अस्य) इस रचना का (न) नहीं (आदिः) शुरूवात (च) तथा (न) नहीं (अन्तः) अन्त है (न) नहीं
(तथा) वैसा (रूपम्) स्वरूप (उपलभ्यते) पाया जाता है (च) तथा (इह) यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी (न) नहीं है (सम्प्रतिष्ठा) क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति है का मुझे भी ज्ञान नहीं है (एनम्) इस (सुविरूढमूलम्) अच्छी तरह स्थाई स्थिति वाला (अश्वत्थम्) मजबूत
स्वरूप वाले (असंड्गशस्त्रेण) पूर्ण ज्ञान रूपी शस्त्र द्वारा (दृढेन्) दृढ़ता से सूक्षम वेद अर्थात् तत्वज्ञान के द्वारा
जानकर अर्थात् तत्वज्ञान रूपी शस्त्र से (छित्वा) काटकर अर्थात् निरंजन की भक्ति को क्षणिक अर्थात् क्षण भंगुर
जानकर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, ब्रह्म तथा परब्रह्म से भी आगे पूर्णब्रह्म की तलाश करनी चाहिए।(3)
केवल हिन्दी अनुवाद : गीता ज्ञान देने वाले प्रभु ने कहा कि इस रचना का न ही शुरूवात तथा न ही अन्त है नहीं वैसा स्वरूप पाया जाता है तथा यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी नहीं है क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति है का मुझे भी ज्ञान नहीं है इसे तत्वज्ञान रूपी शस्त्रा द्वारा काटकर अर्थात् सूक्ष्म वेद (तत्वज्ञान के) द्वारा जानकर उसे तत्वज्ञान रूपी शस्त्र से काटकर।(3)
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 4

ततः, पदम्, तत्, परिमार्गितव्यम्, यस्मिन्, गताः, न, निवर्तन्ति, भूयः,
तम्, एव्, च, आद्यम्, पुरुषम्, प्रपद्ये, यतः, प्रवृतिः, प्रसृता, पुराणी।।4।।

अनुवाद : जब तत्वदर्शी संत मिल जाए तत्वज्ञान से सर्व स्थिति को समझ कर (ततः) इसके पश्चात् (तत्) उस परमात्माके (पदम्) पद स्थान अर्थात् सतलोक को (परिमार्गितव्यम्) भलीभाँति खोजना चाहिए (यस्मिन्)
जिसमें (गताः) गये हुए साधक (भूयः) फिर (न, निवर्तन्ति) लौटकर संसार में नहीं आते (च) और (यतः) जिस परमात्मा-परम अक्षर ब्रह्म से (पुराणी) आदि (प्रवृतिः) रचना-सृष्टि (प्रसृता) उत्पन्न हुई है (तम्) उस (आद्यम्)
सनातन (पुरुषम्) पूर्ण परमात्मा की (एव) ही (प्रपद्ये) शरण में रहकर उसी की पूजा करें अर्थात् उसी पूर्ण परमात्मा की मैं भी पूजा करता हूँ।(4)

केवल हिन्दी अनुवाद : (जब तत्वदर्शी संत मिल जाए तत्वज्ञान से सर्व स्थिति को समझ कर) इसके पश्चात् उस परमात्माके परमपद अर्थात् सतलोक को भलीभाँति खोजना चाहिए जिसमें गये हुए साधक फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिस परमात्मा-परम अक्षर ब्रह्म से आदि रचना-सृष्टि उत्पन्न हुई है। उस पूर्ण परमात्मा की ही शरण में रहकर उसी की भक्ति करें अर्थात् उसी पूर्ण परमात्मा की मैं भी पूजा करता हूँ।(4)

गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 16

द्वौ, इमौ, पुरुषौ, लोके, क्षरः, च, अक्षरः, एव, च, क्षरः, सर्वाणि, भूतानि, कूटस्थः, अक्षरः, उच्यते।।16।।

अनुवाद : (लोके) इस संसारमें (द्वौ) दो प्रकारके (क्षरः) नाशवान् (च) और (अक्षरः) अविनाशी (पुरुषौ) प्रभु हैं
(एव) इसी प्रकार (इमौ) इन दोनों प्रभुओं के लोकों में (सर्वाणि) सम्पूर्ण (भूतानि) प्राणियोंके शरीर तो (क्षरः) नाशवान् (च) और (कूटस्थः) जीवात्मा (अक्षरः) अविनाशी (उच्यते) कहा जाता है।(16)

केवल हिन्दी अनुवाद : इस संसार में क्षर पुरूष (ब्रह्म) तथा अक्षर पुरूष (परब्रह्म) दो प्रकार के प्रभु हैं। इसी प्रकार इन दोनों प्रभुओं के लोकों में सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है।(16)

गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 17

उत्तमः, पुरुषः, तु, अन्यः, परमात्मा, इति, उदाहृतः, यः, लोकत्रयम् आविश्य, बिभर्ति, अव्ययः, ईश्वरः।।17।।

अनुवाद : गीता ज्ञान बोलने वाले ने स्पष्ट कहा कि (उत्तमः) उत्तम (पुरुषः) प्रभु (तु) तो (अन्यः) उपरोक्त दोनों प्रभुओं (क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष) से भी अन्य ही है (इति) यह वास्तव में (परमात्मा) परमात्मा (उदाहृतः)
कहा गया है (यः) जो (लोकत्रयम्) तीनों लोकों में (आविश्य) प्रवेश करके (बिभर्ति) सबका धारण पोषण करता है एवं (अव्ययः) अविनाशी (ईश्वरः) ईश्वर =प्रभु श्रेष्ठ अर्थात् समर्थ प्रभु है।(17)
केवल हिन्दी अनुवाद : उत्तम प्रभु यानि पुरूषोत्तम तो उपरोक्त दोनों प्रभुओं से भी अन्य ही है यह वास्तव में परमात्मा कहा गया है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण पोषण करता है एवं अविनाशी (ईश्वर) = प्रभु श्रेष्ठ अर्थात् समर्थ प्रभु है।(17)

क्रमशः_____________________।
(अब आगे अलगे भाग में)

••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। साधना चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry

27/01/2023

#गहरीनजरगीता_में_Part_36 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#गहरीनजरगीता_में_Part_37
हम पढ़ रहे है "पुस्तक गहरी नज़र गीता में"..........
(66-67)

(उल्लेख संख्या - 65) अध्याय 7 श्लोक 12 (द्वितीय अंश)

ध्रुवादूर्ध्वं महर्लोको यत्र ते कल्पवासिनः। एकयोजनकोटिस्तु यत्र ते कल्पवासिनः।।12।।

अनुवाद :- ध्रुव से एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है, जहाँ कल्पान्त-पर्यन्त रहने वाले भृगु आदि
सिद्धगण रहते हैं।।12।।

(उल्लेख संख्या - 66) अध्याय 7 श्लोक 13 (द्वितीय अंश)

द्वे कोटी तु जनो लोको यत्र ते ब्रह्मणः सुताः। सनन्दनाद्याः प्रथिता मैत्रोयामलचेतसः।।13।।

अनुवाद :- हे मैत्रोय! उससे भी दो करोड़ योजन ऊपर जनलोक है जिसमें ब्रह्माजी के प्रख्यात पुत्र निर्मलचित्त सनकादि रहते हैं।।13।।

(उल्लेख संख्या - 67) अध्याय 7 श्लोक 14 (द्वितीय अंश)

चतुर्गुणोत्तरे चोर्ध्वं जनलोकात्तपः स्थितम्। वैराजा यत्र ते देवाः स्थिता दाहविवर्जिताः।।24।।

अनुवाद :- जनलोक से चौगुना अर्थात् आठ करोड़ योजन ऊपर तपलोक है; वहाँ वैराज नामक देवगणों का निवास है जिनका कभी दाह नहीं होता।।14।।

(उल्लेख संख्या - 68) अध्याय 7 श्लोक 15 (द्वितीय अंश)

षड्गुणेन तपोलोकात्सत्यलोको विराजते। अपुनर्मारका यत्र ब्रह्मलोको हि स स्मृतः।।15।।

अनुवाद :- तपलोकसे छः गुना अर्थात् बारह करोड़ योजनके अन्तरपर सत्यलोक सुशोभित है जो ब्रह्मलोक भी कहलाता है और जिसमें फिर न मरनेवाले अमरगण निवास करते हैं।।15।।

(उल्लेख संख्या - 69) अध्याय 7 श्लोक 16 (द्वितीय अंश)

पादगम्यन्तु यत्किञ्चिद्वस्त्वस्ति पृथिवीमयम्। स भूर्लोकः समाख्यातो विस्तरो स्य मयोदितः।।16।।

अनुवाद :- जो भी पार्थिव वस्तु चरणाञ्चार के योग्य है वह भुर्लोक ही है। उसका विस्तार मैं कह चुका।।16।।

(उल्लेख संख्या - 70) अध्याय 7 श्लोक 17 (द्वितीय अंश)

भूमिसूर्यान्तरं यश सिद्धादिमुनिसेवितम्। भुवर्लोकस्तु सोऽप्युक्तो द्वितीयो मुनिसत्तम।।17।।

अनुवाद :- हे मुनिश्रेष्ठ! पृथिवी और सूर्य के मध्यमें जो सिद्धगण और मुनिगण-सेवित स्थान है, वही
दूसरा भुवर्लोक है।।17।।

(उल्लेख संख्या - 71) अध्याय 7 श्लोक 18 (द्वितीय अंश)

ध्रुवसूर्यान्तरं यश नियुतानि चतुर्दश। स्वर्लोकः सो पि गदितो लोकसंस्थानचिन्तकैः।।18।।

अनुवाद :- सूर्य और ध्रुव के बीच में जो चौदह लक्ष योजनका अन्तर है, उसीको लोकस्थितिका विचार करने वालोंने स्वर्लोक कहा है।।18।।

(उल्लेख संख्या - 72) अध्याय 7 श्लोक 19 (द्वितीय अंश)

त्रौलोक्यमेतत्कृतकं मैत्रेय परिपठ्यते। जनस्तपस्तथा सत्यमिति चाकृतकं त्रयम्।।19।।

अनुवाद :- हे मैत्रेय! ये (भूः, भुवः, स्वः) ‘कृतक’ त्रौलोक्य कहलाते हैं और जन, तप तथा सत्य-ये तीनों ‘अकृतक’ लोक हैं।।19।।

(उल्लेख संख्या - 73) अध्याय 7 श्लोक 20 (द्वितीय अंश)

कृतकाकृतयोर्मध्ये महर्लोक इति स्मृतः। शून्यो भवति कल्पान्ते यो त्यन्तं न विनश्यति।।20।।

अनुवाद :- इन कृतक और अकृतक त्रिलोकियों के मध्यमें महर्लोक कहा जाता है, जो कल्पान्त में केवल जनशून्य हो जाता है, अत्यन्त नष्ट नहीं होता इसलिए यह ‘कृतकाकृत’ कहलाता है।।20।।

(उल्लेख संख्या - 74) अध्याय 7 श्लोक 21 (द्वितीय अंश)

एते सप्त मया लोका मैत्रेय कथितास्तव। पातालानि च सप्तैव ब्रह्माण्डस्यैष विस्तरः।।21।।

अनुवाद :- हे मैत्रेय! इस प्रकार मैंने तुमसे ये सात लोक और सात ही पाताल कहे। इस ब्रह्माण्ड का बस इतना ही विस्तार है।।21।।

(उल्लेख संख्या - 75) अध्याय 7 श्लोक 22 (द्वितीय अंश)

एतदण्डकटाहेन तिर्यक् चोर्ध्वमधस्तथा। कपित्थस्य यथा बीजं सर्वतो वै समावृतम्।।22।।

अनुवाद :- यह ब्रह्माण्ड कपित्थ (कैथे) के बीजके समान ऊपर-नीचे सब ओर अण्डकटाहसे घिरा हुआ है।।22।।

(उल्लेख संख्या - 76) अध्याय 7 श्लोक 23 (द्वितीय अंश)

दशोत्तरेण पयसा मैत्रेयाण्डं च तद्वृतम्। सर्वो म्बुपरिधानो सौ वहिना वेष्टितो बहिः।।23।।

अनुवाद :- हे मैत्रेय! यह अण्ड अपने से दसगुने जल से आवृत है और वह जलका सम्पूर्ण आवरण अग्नि से घिरा हुआ है।।23।।

(उल्लेख संख्या - 77) अध्याय 7 श्लोक 24 (द्वितीय अंश)

वहिंश्र्च वायुना वायुमैतरेय नभसा वृतः। भूतादिना नभः सो पि महता परिवेष्टितः।
दशोत्तराण्यशेषाणि मैत्रेयैतानि सप्त वै।।24।।

अनुवाद :- अग्नि वायु से और वायु आकाश से परिवेष्टित है तथा आकाश भूतों के कारण तामस अहंकार और अहंकार महत्तत्वसे घिरा हुआ है। हे मैत्रेय! ये सातों उत्तरोत्तर एक-दूसरे से दसगुने हैं।।24।।

(उल्लेख संख्या - 78) अध्याय 7 श्लोक 25-26 (द्वितीय अंश)

महान्तं च समावृत्य प्रधानं समवस्थितम्। अनन्तस्य न तस्यान्तः संख्यानं चापि विद्यते।।25।।

तदनन्तमसंख्यातप्रमाणं चापि वै यतः। हेतुभूतमशेषस्य प्रकृतिः सा परा मुने।।26।।

अनुवाद :- महत्तत्वको भी प्रधानने आवृत कर रखा है। वह अनन्त है; तथा उसका न कभी अन्त (नाश)
होता है और न कोई संख्या ही है; क्योंकि हे मुने! वह अनन्त, असंख्येय, अपरिमेय और सम्पूर्ण जगत्का कारण
है और वही परा प्रकृति है।।25-26।।

(उल्लेख संख्या - 79) अध्याय 7 श्लोक 27 (द्वितीय अंश)

अण्डानां तु सहस्त्राणां सहस्त्राण्ययुतानि च। ईदृशानां तथा तत्र कोटिकोटिशतानि च।।27।।

अनुवाद :- उसमें ऐसे-ऐसे हजारों, लाखों तथा सैकड़ों करोड़ ब्रह्माण्ड हैं।।27।।

क्रमशः_______________।
(अब आगे अलगे भाग में)

••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। साधना चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry

Want your school to be the top-listed School/college in Dombivli?

Click here to claim your Sponsored Listing.

Location

Category

Website

Address


Dombivli
421201