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25 वर्ष की आयु में संन्यास लेकर देश-विदेश में भारतीय संस्कृति को गौरवान्वित करने वाले ‘श्री स्वामी विवेकानंद जी’ के जीवन के जानिए कुछ प्रेरक किस्से
दुनिया में महान लोग बहुत कम जन्म लेते हैं जिनकी महानता की मिसाल सदियों तक याद रहती है। एक युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगंध विदेशों में बिखेरनें वाले स्वामी विवेकानंद इन्हीं महान लोगों में से एक है। स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था। उनका जन्मदिन हर साल युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। एक उच्च कुलीन परिवार में जन्में विवेकानंद जी ने बचपन से ही अपार कष्टों को सहा था। उनके जीवन पर उनके माता-पिता की गहरी छाप थी। मात्र 25 वर्ष की आयु में ही स्वामी विवेकानंद जी ने अपना घर-परिवार छोड़कर सन्यासी का जीवन अपना लिया। वे रामकृष्ण स्वामी परमहंस जी के प्रमुख शिष्य बन गए। अमेरिका में अपने वक्तव्य से हर किसी को अचंभित कर देने वाली स्वामी विवेकानंद जी के विचार आज हर किसी के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है। आज स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिवस पर आइए जानते हैं उनके जीवन के कुछ प्रेरक किस्सें।
बचपन से ही अन्य बच्चों से थे अलग
12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट के उच्च कुलीन बंगाली कायस्थ परिवार में जन्में स्वामी विवेकानंद स्वामी जी बचपन से ही अन्य बच्चों से अलग थे। वो आर्थिक रूप से संपन्न परिवार में पले और बढ़े थे। उनके बचपन का नाम नरेंन्द्र था। उनके पिता उन्हें अग्रेजी भाषा और शिक्षा का ज्ञान दिलवाना चाहते थे। लेकिन विवेकानंद जी का कभी भी अंग्रेजी शिक्षा में मन नहीं लगा। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी एक धार्मिक महिला थी। वह नरेन्द्रनाथ के बाल्यकाल में रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनाया करती थी। जिसके बाद उनकी आध्यात्मिकता के क्षेत्र में बढते चले गयी। जब नरेन्द्र छोटे थे, तब वे बहुत शरारती हुआ करते थे। वे पढाई के साथ – साथ खेलकूद में भी अव्वल थे। उन्होंने संगीत में गायन और वाद्य यंत्रों को बजाने की शिक्षा ग्रहण की थी। बहुत ही कम उम्र से वे ध्यान भी किया करते थे। अपने बचपन में वे ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में और विभिन्न रीति – रिवाजो के बारे में और जातिवाद के बारे में प्रश्न किया करते थे और इनके सही या गलत होने के बारे में जिज्ञासु थे। बाल्यकाल से ही नरेन्द्र के मन में संन्यासियों के प्रति बड़ी श्रद्धा थी, अगर उनसे कोई सन्यासी या कोई फ़कीर कुछ मांगता या किसी व्यक्ति को किसी वस्तु की आवश्यकता होती थी और अगर वो नरेन्द्र के पास होती थी तो वे तुरंत ही उसे दे देते थे।
पिता की मृत्यु के बाद संभाला घर का भार
सन 1871 में जब नरेन्द्र 8 वर्ष के थे, उनका प्रवेश ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन इंस्टिट्यूशन में करा दिया गया और सन 1877 तक उन्होंने यही शिक्षा प्राप्त की। नरेन्द्र ने अपनी मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। एक साल बाद उन्होंने कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज में दाखिला लिया और फिलोसफी पढ़ना प्रारंभ किया। यहाँ उन्होंने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी फिलोसफी और यूरोपियन देशों के इतिहास के बारे में ज्ञानार्जन किया। उन्हें शुरू से ही कई विषयों में महारत हासिल थी। नरेन्द्र की आश्चर्यजनक याददाश्त के कारण उन्हें कुछ लोग ‘श्रुतिधरा’ भी कहते थे। लेकिन अपने पिता विश्वनाथ दत्त की मृत्यु के बाद घर का सारा भार नरेन्द्र के कंधो पर गया। घर की दशा बहुत खराब हो गई थी। लेकिन अत्यन्त दर्रिद्रता में भी नरेन्द्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रात भर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।
ऐसे मिली गुरू रामकृष्ण परमहंस से मिलने की प्रेरणा
नरेन्द्र की बढ़ती उम्र के साथ उनका ज्ञान तो बढ़ ही रहा था, परन्तु उनके तर्क भी प्रभावी होते जा रहे थे। उनके मन की ईश्वर के अस्तित्व की बात और भी गहराती गयी और इसी ने उन्हें “ब्रह्मसमाज” से जोड़ा। ब्रह्म समाज से जुड़ने के बाद स्वामी विवेकानन्द जी को ब्रह्म समाज के प्रमुख देवेन्द्रनाथ टैगोर से मिलने का मौका मिला। साल 1881 में वे दक्षिणेश्वर के गुरू रामकृष्ण परमहंस से मिले। श्री रामकृष्ण परमहंस माँ काली के मंदिर में पुजारी हुआ करते थे। जब नरेन्द्र उनसे पहली बार मिले तो अपनी आदत और जिज्ञासा वश उन्होंने रामकृष्ण परमहंस से भी पूछा कि “क्या उन्होंने ईश्वर को देखा हैं ?” तो रामकृष्ण परमहंस ने उत्तर दिया कि “हाँ, मैंने ईश्वर को देखा हैं और बिल्कुल वैसे ही जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूँ। इससे प्रभावित होकर नरेन्द्र ने अपने गुरु की छत्र – छाया में 5 सालों तक ‘अद्वैत वेदांत’ का ज्ञान प्राप्त किया।
ऐसे बनें सन्यासी
स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव श्रीरामकृष्ण को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की चिंता किये बिना, स्वयं के भोजन की चिंता किये बिना वे गुरु-सेवा में सतत संलग्न रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। 25 वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे| तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की जब स्वामी विवेकानंद 25 वर्ष के थे तो उन्होंने अपना घर - परिवार छोड़कर सन्यासी का जीवन अपना लिया। वे रामकृष्ण स्वामी परमहंस जी के प्रमुख शिष्य बन गए। रामकृष्ण परमहंस जी की मृत्यु के बाद स्वामी जी ने रामकृष्ण संघ की स्थापना की। आगे चलकर जिसका नाम रामकृष्ण मठ व रामकृष्ण मिशन हो गया।
शिकागों सम्मेलन में सभी को कर दिया अंचभित
11 सितम्बर 1893 के दिन शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन का आयोजन होने वाला था। स्वामी जी उस सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जैसे ही धर्म सम्मेलन में स्वामी जी ने अपनी ओजस्वी वाणी से भाषण की शुरुआत की और कहा “मेरे अमेरिकी भाइयो और बहनों” वैसे ही सभागार तालियों की गडगडाहट से 5 मिनिट तक गूंजता रहा। जिससे न केवल अमेरीका में बल्कि विश्व में स्वामीजी का आदर औऱ मान बढ़ गया।
ऐसे नरेंन्द्र बनें स्वामी विवेकानंद
सन 1890 में नरेन्द्र ने लम्बी यात्राएँ की, उन्होंने लगभग पूरे देश में भ्रमण किया। अपनी यात्राओं के दौरान वे वाराणसी, अयोध्या, आगरा, वृन्दावन और अलवर आदि स्थानों पर गये और इसी दौरान उनका नामकरण स्वामी विवेकानंद के रूप में हुआ। अपनी यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानंद के साथ उनका कर्मकुंडल, उनका स्टाफ और 2 किताबें -: श्रीमद् भगवत गीता और दी इमिटेशन ऑफ़ क्रिस्ट हमेशा रहती थी। इस भ्रमण के दौरान उन्होंने भिक्षा भी मांगी।
समाज सेवा में रहे सबसे आगे
स्वामी विवेकानंद ने भारत के आध्यात्मिक उत्थान के लिए बहुत कार्य किया। पश्चिम के देशों में वेदांत फिलोसफी फैलाई। वे वेदांत फिलोसोफी के सर्वाधिक प्रभावी, आध्यात्म प्रमुख व्यक्ति थे और उन्होंने गरीबों की सेवा के लिए “रामकृष्ण मिशन” की स्थापना की। वे त्याग की मूर्ति थे और उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन देश और गरीबों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। इसके लिए वे हमेशा लालायित रहते थे। उन्होंने देश के युवाओं में प्रगति करने के लिए नया जोश और उत्साह भर दिया था। वे एक देशभक्त संत के रूप में जाने जाते हैं, इसलिए उनके जन्म दिवस को “राष्ट्रीय युवा दिवस” के रूप में मनाया जाता हैं।
स्वामी विवेकानंद जी की मृत्यु
सन 1895 तक उनके व्यस्त कार्यक्रमों और दिनचर्या का असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ने लगा था और इसीलिए अब उन्होंने अपने लेक्चर टूर को विराम दिया और वेदांत और योग के संबंध में निजी कक्षाएं देने लगे। 4 जुलाई 1902 को स्वामी जी ने बेलूर मठ में पूजा अर्चना की और योग भी किया। उसके बाद वह अपने कमरे में योग करने गए और योग करते समय मात्र 39 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। स्वामी जी के जन्मदिवस को पूरे भारतवर्ष में “युवा दिवस“ के रूप में मनाया जाता हैं।
स्वामी विवेकानंद जी का मानना था कि प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में एक विचार या संकल्प निश्चित करना चाहिए और सम्पूर्ण जीवन उसी संकल्प के लिए न्यौछावर कर देना चाहिए, तभी आप सफलता पा सकेंगे। स्वामी विवेकानंद भले ही आज इस दुनिया में जीवित नहीं है लेकिन उनके विचार आज भी लोगों के जीवन में प्रेरणा (Inspiration) भरने का काम कर रहें हैं। आज भी लोग उनके विचारों को अपनाकर अपनी सफलता की कहानी (Success Story) लिख रहे हैं। Bada Business श्री स्वामी विवेकानंद जी की जयंती पर उन्हें शत-शत नमन करता है।

पौराणिक कथाओं को निर्जीव पत्थरों के जरिए सजीव रूप देने वाले प्रसिद्ध कलाकार ‘श्री सुदर्शन साहू जी’ को सरकार ने किया पद्म विभूषण सम्मान से सम्मानित
इंसान अपने नाम से नहीं बल्कि अपने काम से पहचाना जाता है। हमारे देश में कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने हुनर के जरिए भारत सहित पूरे विश्व में अपनी एक अलग पहचान बनाई हैं। इन्हीं महान कलाकारों में से एक हैं श्री सुदर्शन साहू जी। श्री सुदर्शन साहू जी अपनी कला से पत्थर की मूर्तियों में ऐसे जान फूंकते हैं जैसे वो अभी बोल उठेंगी। उनकी कलाकारी को देख हर कोई दंग रह जाता है। श्री सुदर्शन साहू जी को बेजान पत्थरों को उकेरकर पौराणिक कथाओं को सजीव सी दिखाने वाली मूर्तियां गढ़ने में महारत हासिल है। वो अपनी कला के लिए 1988 में पद्मश्री से नवाजे जा चुके हैं। श्री सुदर्शन साहू जी ने 1977 में पुरी में क्राफ्ट म्यूजियम स्थापित किया था। यह उनकी कलाकारी का ही फल है कि सरकार ने पद्मश्री सम्मान के बाद अब उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान में से एक पद्म विभूषण सम्मान से सम्मानित किया है। एक मूर्तिकार के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले श्री सुदर्शन साहू जी के लिए सफलता की कहानी लिखना इतना आसान नहीं था। आइए जानते हैं उनके जीवन का प्रेरणादायी सफर।
पौराणिक कथाओं को देते हैं जींवत रूप
11 मार्च 1939 को ओडिशा के पुरी में जन्में श्री सुदर्शन साहू जी प्रसिद्ध मूर्तिकार हैं। उनकी बनाई कलाकृतियों की प्रदर्शनी देश-विदेश में प्रसिद्ध हैं। श्री सुदर्शन साहू जी (Sudarshan Sahoo) की गिनती ओडिशा के विश्वकर्मा कहे जाने वाले मूर्तिकारों में की जाती हैं। श्री सुदर्शन साहू जी शुरू से ही अपने पैतृक घर में पत्थर और लकड़ी से पारंपरिक मूर्तियों की कला का अभ्यास किया करते थे। जब उनकी कला की चर्चा विश्व स्तर तक होने लगी तो उन्होंने अपनी कला से जुड़ी एक नई संस्थान खोलने की सोची। वे चाहते थे कि काबिल कलाकारों की सुविधाओं के लिए एक उचित कार्यशाला खोला जाए, ताकि पर्यटक यहां आए और पारंपरिक विरासत और भारतीय कला में निरंतर विकास को देख सकें व मूर्तियों को महसूस कर सकें।
सरकार की मदद से क्राफ्ट म्यूजियम की स्थापना की
श्री सुदर्शन साहू जी (Sudarshan Sahoo) ने अपने सपने को साकार करते हुए पुरी में सन् 1977 में क्राफ्ट म्यूजियम (Craft Museum) स्थापित किया। जब श्री सुदर्शन साहू जी (Sudarshan Sahoo) ने 1991 में भुवनेश्वर में ओडिशा सरकार की मदद से श्री सुदर्शन आर्ट एंड क्राफ्ट्स विलेज की स्थापना की, तब उन्होंने उन तमाम मूर्तिकारों को बढ़ावा दिया, जो उनकी तरह श्रेष्ठ मूर्तिकार बनना चाहते थें। बता दें कि साहू जी की ये संस्था राज्य का एक प्रशिक्षण और रचनात्मक केंद्र है। जहां कलाकार अपनी कला के द्वारा पत्थर, लकड़ी और फाइबर ग्लास से बनी पारंपरिक मूर्तियों को गढ़ने का कार्य करते हैं।
पद्मश्री, पद्म विभूषण सहित कई सम्मानों से हो चुके हैं सम्मानित
रेत के पत्थरों को पौरोणिक कथाओं की मूर्तियों में बदलने की कला में महारत हासिल करने वाले श्री सुदर्शन साहू जी (Sudarshan Sahoo) को भारत सरकार ने कई पुरस्कारों से सम्मानित किया हैं। वर्ष 1981 में श्री सुदर्शन साहू जी (Sudarshan Sahoo) को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वहीं 1988 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री अवॉर्ड से नवाजा था। इसके अलावा श्री सुदर्शन साहू जी (Sudarshan Sahoo) को 2003 में शिल्प गुरु पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। तमाम बड़ें-बड़ें पुरस्कारों से नवाजे जा चुके साहू जी को साल 2012 में ओडिशा ललित कला अकादमी ने धर्मपद पुरस्कार से सम्मानित किया था। यही नहीं 25 जनवरी 2021 को भारत सरकार ने देश के सर्वोच्च सम्मान में से एक कला के क्षेत्र में उन्हें पद्म विभूषण अवॉर्ड सम्मान से सम्मानित किया था।
अपनी कला से मूर्तियों में जान फूंकने वाले श्री सुदर्शन साहू जी (Sudarshan Sahoo) आज सही मायने में लाखों लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत (Inspiration) हैं। उन्होंने अपनी कला के जरिए देश-विदेश में अपनी पहचान बनाई है और अपनी सफलता की कहानी (Success Story) लिखी है। Bada Business श्री सुदर्शन साहू जी की कला और उनकी मेहनत की तहे दिल से सराहना करता है।
Sindhutai Sapkal - Mother of orphans #abhiandniyu

5 लाख से अधिक पेड़ लगाकर रेगिस्तान को हरा-भरा जंगल बनाने वाले ‘ट्री- मैन’ के नाम से मशहूर ‘श्री हिम्मताराम भांभू जी‘ को सरकार ने किया पद्मश्री सम्मान से सम्मानित
एक ओर जहां पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है जिसकी वजह से आज ऑक्सीजन की कमी से पूरा देश जूझ रहा है ऐसे में एक शख्सियत ऐसी भी हैं जो आज प्रकृति को हरा भरा करने के लिए पूरी तरह से स्वंय को समर्पित कर चुके हैं। राजस्थान के नागौर जिले के रहने वाले श्री हिम्मताराम भांभू जी 1975 से अब तक साढ़े पांच लाख पौधे रोप चुके हैं। यही नहीं, इनमें से साढ़े तीन लाख पेड़ बन चुके हैं। इसमें छह एकड़ में 11 हजार वृक्षों वाला एक जंगल भी शामिल है। पर्यावरण को समर्पित इस अहम योगदान के लिए उन्हें हाल ही में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया है। पेड़-पौधों के लिए अपना संपूर्ण जीवन न्यौछावर करने वाले श्री हिम्मताराम भांभू जी का जीवन काफी संघर्षपूर्ण बिता है। आइए जानते हैं उनके जीवन की प्रेरणादायक कहानी।
दादी से मिली थी पौधा लगाने की प्रेरणा
पेशे से मिस्त्री नागौर जिले के सुखवासी गांव के रहने वाले श्री हिम्मताराम को धरती को हरा-भरा रखने का विचार विरासत में मिला। श्री हिम्मताराम बहुत अधिक पढ़े-लिखे नहीं हैं। गोगेलाव गांव के स्कूल में कक्षा छह तक पढ़ाई की है। उन्होंने खेती के मशीनीकरण के शुरुआती दौर में ट्रैक्टर की मरम्मत का काम सीखा और कुशल मिस्त्री बन गए। जब वो 18 साल के थे तो उनकी दादी ने उनसे पीपल का एक पौधा लगवाया था और इस पौधे का पूरा ध्यान रखने के लिए कहा था। उस दिन दादी से मिली प्रेरणा का नतीजा यह है कि 1975 से अब तक श्री हिम्मताराम राजस्थान के कोने-कोने में करीब साढ़े पांच लाख पौधे रोप चुके हैं। श्री हिम्मताराम ने नागौर के नजदीक हरिमा गांव में छह एकड़ जमीन खरीदी और उस पर 11 हजार पौधे रोपकर एक हरा-भरा जंगल तैयार कर दिया हैं। यहां 300 मोर और पशु-पक्षी प्राकृतिक वातावरण में रहते हैं।
रेगिस्तान को बना दिया हरा-भरा जंगल
69 साल के श्री हिम्मताराम भांभू जी जहां रहते हैं वहां का अधिकांश इलाका रेगिस्तान है। जहां खारा पानी है। लेकिन उन्होंने वहां भी जंगल बसा दिया। इसके लिए उन्होंने 250 फीट की गहराई वाला नलकूप खुदवाया जिसके बाद वहां खारा पानी आ गया। श्री हिम्मताराम ने इस खारे पानी का इस्तेमाल किया ही साथ ही बारिश के पानी को खेत में रोककर जमीन में नमी पैदा की और इससे पेड़ उगाए। आज उनका उगाया-बसाया जंगल पर्यावरण का अध्ययन करने वाले छात्रों के लिए एक संस्थान की तरह है। इस जंगल में हर तरह के पेड़ हैं।
लोगों को घर-घर जाकर करते हैं प्रेरित
पर्यावरण प्रेमी श्री हिम्मताराम भांभू जी राजस्थान में जगह-जगह जाकर लोगों को जंगलों को सुरक्षित रखने के लिए प्रेरणा देते हैं। इसके साथ वे करब 1000 पक्षियों और जानवरों को रोज 20 किलो दाना खिलाते हैं। इसके साथ वे ड्रग्स की आदत के खिलाफ भी काम करते हैं। पिछले 45 साल में श्री हिम्मताराम भाम्भू ने हर दिन पर्यावरण, पेड़ और जीव रक्षा की है। श्री हिम्मताराम ने राष्ट्रीय राजमार्ग 65 पर नागौर से करीब 20 किमी दूर हरिमा गांव में खुद की खरीदी करीब छह हेक्टेयर जमीन पर 11 हजार पौधे लगाए, जो आज हरे भरे पेड़ बन चुके हैं। आज यहां एक घना जंगल बन गया है। जहां हजारों पशु-पक्षी रहते हैं।
अपने पैसों से उगाए पेड़-पौधे
धरती को हरा-भरा करने की मुहिम में श्री हिम्मताराम ने किसी की भी मदद नहीं ली। उन्होंने अपनी पूंजी और पुरस्कारों के रूप में प्राप्त धनराशि से का प्रयोग पेड़-पौधे उगाने में किया। वो वन विभाग से पौधे खरीदकर लोगों को देते थे और उनसे संपर्क में रहते थे। जो पौधे लगाए गए, उनकी वृद्धि के बारे में पूछते रहते थे, इसीलिए पौधे पेड़ बन पाए। पर्यावरण के साथ ही पशु-पक्षियों से भी उनका प्रेम बढ़ा। वे मेनका गांधी की संस्था पीपल फॉर एनिमल से भी जुड़े हैं और अब तक 13 शिकारियों को जेल पहुंचा चुके हैं।
सरकार ने किया पद्मश्री सम्मान से सम्मानित
श्री हिम्मताराम के कार्यों को राज्य और केंद्र सरकार ही नहीं विभिन्न संस्थाओं ने भी सराहा है। वर्ष 2015 में राजस्थान सरकार ने उन्हें राजीव गांधी पर्यावरण संरक्षण पुरस्कार दिया था। 1999 में पर्यावरण श्रेणी में यूनेस्को द्वारा पुरस्कार प्रदान किया गया। उनके बसाए जंगल ‘हरिमा’को अब कृषि-वानिकी के एक सफल मॉडल के रूप में देखा जाता है। आसपास के स्कूलों के छात्र यहां प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के लिए आते हैं। यही कारण है कि भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा है।
श्री हिम्मताराम भांभू जी आज लाखों लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत (Inspiration) बन चुके हैं। प्रकृति के प्रति उनके प्रेम ने ही उनकी सफलता की कहानी (Success story) लिखी है। धरती को साफ-सुथरा और हरा भरा रखने में श्री हिम्मताराम भांभू जी का बड़ा योगदान रहा है। Bada Business श्री हिम्मताराम भांभू जी के इस महान कार्य और उनकी मेहनत की तहे दिल से सराहना करता है।

भारत को पहला विश्व कप जिताने वाले भारतीय क्रिकेट के पहले सुपरस्टार 'श्री कपिल देव जी' के जीवन की जानिए रोचक और प्रेरक कहानी
“लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती”।
यह पंक्तियां भारतीय क्रिकेट के पहले सुपरस्टार कहे जाने वाले श्री कपिल देव जी के जीवन पर एकदम सटीक बैठती हैं। भारत में शुरू से ही क्रिकेट का हर कोई दीवाना रहा है लेकिन क्रिकेट को घर-घर तक पहुंचाने का श्रेय श्री कपिल देव जी को ही जाता है। उन्होंने साल 1983 में भारत को पहला क्रिकेट विश्व कप का विजेता बनाकर न केवल इतिहास रच दिया था बल्कि बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के दिलों में क्रिकेट को खास पहचान दिलाई थी। इस महान खिलाड़ी ने भारत में पहली बार क्रिकेट वर्ल्ड कप लाने का काम किया था, जिसको उस समय किसी ने भी सपने में भी नहीं सोचा था। अनहोनी को होनी करने वाले श्री कपिल देव (Kapil Dev) जी के जन्मदिवस पर आइए जानते हैं उनके जीवन की प्रेरक और रोचक कहानी।
बचपन से ही खेलने का था शौक
6 जनवरी 1959 को हरियाणा के चंडीगढ़ में जन्में श्री कपिल देव जी का परिवार बंटवारे के बाद चंडीगढ़ में आकर रहने लगा। श्री कपिल देव जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा डीएवी स्कूल से प्राप्त की। जिसके बाद वो स्नातक की पढ़ाई के लिए सेंट एडवर्ड कॉलेज गए। श्री कपिल देव जी को बचपन से ही खेलकूद का बेहद शौक था, लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा क्रिकेट पसंद था। कॉलेज के दिनों में वो ज्यादा समय क्रिकेट को ही दिया करते थे जिसके कारण उनके खेल में काफी निखार आता गया। एक तेज गेंदबाज बनने के लिए फिटनेस कितनी जरूरी होती है इस बात को कपिल देव जी उस वक्त भी बखूबी जानते थे। इसलिए अपने कंधे मजबूत रखने के लिए श्री कपिल देव जी लकडिया तोड़ा करते थे। क्रिकेट के प्रति उनका यही जुनून देखकर उनके घर वालों ने उन्हें क्रिकेट के गुण से अवगत कराने का फैसला किया।
ऐसे की क्रिकेट खेलने की शुरूआत
श्री कपिल देव जी में प्रतिभा कूट-कूट कर भरी हुई थी पर क्रिकेट के कुछ तकनीकी सुधार की भी जरूरत थी। उनकी कमियों को दूर करने में उनके कोच श्री देशप्रेम आजाद जी ने उनकी बहुत मदद की। देशप्रेम आजाद जी के कोचिंग में श्री कपिल देव जी ने अपनी गेंदबाजी के साथ साथ बल्लेबाजी में भी खूब मेहनत करने लगे और इसके परिणामस्वरूप नवंबर 1975 में रणजी खेलने के लिए हरियाणा टीम से चुना गया।
अपने प्रदर्शन की बदौलत भारतीय क्रिकेट में बनाई जगह
श्री कपिल देव जी ने अपने पहले ही घरेलु मैच में 6 विकेट निकालकर अपनी प्रतिभा का परिचय सभी को दे दिया था। उन्होंने हरियाणा की तरफ से कुल 30 मुकाबले खेले। जिसमें उन्होंने 121 विकेट निकाल सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया। इससे भारतीय क्रिकेट बोर्ड भी अछूता नहीं रहा। उनके यही शानदार प्रदर्शन को देखते हुए उन्हें 1978 में भारतीय टीम में खेलने का मौका मिला। साल 1978 में पाकिस्तान के दौरे पर श्री कपिल देव जी ने 1 अक्टूबर 1978 में अपना पहला एकदिवसीय मैच खेला। अयूब नेशनल स्टेडियम कोटा पाकिस्तान में खेला गया मैच श्री कपिल देव जी के लिए कुछ खास नहीं रहा। उन्होंने 8 ओवर में 27 रन देकर केवल 1 विकेट ही निकाली और बल्लेबाजी में उन्हें ज्यादा वक्त नहीं मिला। इस पूरी श्रृंखला में खेले गए तीन मैचों में उन्होंने केवल 18 रन बनाये और 4 विकेट ही निकल पाए।
ऐसे बने बेहतरीन आलराउंडर
श्री कपिल देव (Kapil Dev) जी ने बेहतरीन बल्लेबाजी से सन् 1979 -1980 में उन्होंने दिल्ली के खिलाफ 193 रन की नाबाद पारी खेलकर हरियाणा को शानदार जीत दिलायी। ये उनके करियर का पहला शतक था। जिसके बाद साबित हो गया कि श्री कपिल देव जी सिर्फ गेंदबाजी से ही नहीं बल्कि बल्लेबाजी से भी भारत को जीत दिला सकते हैं। इनकी दोनों प्रतिभाओं की बदौलत इनको अभी तक का सबसे बेहतरीन आलराउंडर माना जाता है। 17 अक्टूबर सन् 1979 में वेस्टइंडीज के खिलाफ उन्होंने 124 में 126 रन बनाये थे। इसको इनकी एक यादगार पारी के रूप में गिना जाता है।
खराब फॉर्म के बाद किया कमबैक
श्री कपिल देव जी को भारत की तरफ से टेस्ट क्रिकेट में भी खेलने का मौका मिला पर एकदिवसीय क्रिकेट में उन्हें लंबे समय तक संघर्ष करना पड़ा लेकिन श्री कपिल देव जी मेहनत करते रहे और अपने प्रदर्शन में सुधार लाते गए। उन्होंने अपने ऑलराउंडर प्रदर्शन से कई बार भारतीय टीम की जीत में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। 1982/83 में श्रीलंका के खिलाफ खेले जाने वाले मैचों के लिये सबको चौंकाते हुए श्री कपिल देव जी को भारतीय टीम का कप्तान बनाया गया।
भारतीयों के मन में ऐसे जगाई थी जीतने की उम्मीद
साल 1983 में क्रिकेट विश्व कप का आयोजन किया गया। हालांकि पिछले विश्व कप में भारतीय टीम के प्रदर्शन को देखने के बाद किसी ने उम्मीद नहीं की थी कि भारत विश्व कप जीत सकता है। जब श्री कपिल देव जी ने वर्ल्ड कप में खेलना शुरू किया था तब इनका औसत सामान्य बॉलर की तरह ही था। भारत को सेमीफइनल में पहुंचने के लिए ज़िम्बाब्वे से मैच जीतना आवश्यक हो गया था। उस मैच के दौरान भारत लगभग हार की ओर बढ़ ही रहा था कि श्री कपिल देव जी ने अपनी शानदार बल्लेबाजी की बदौलत मैच संभाल लिया। इसी मैच के दौरान इन्होंने 175 रन बनाकर ज़िम्बाब्बे की गेंदबाजी को धोकर रख दिया, क्योंकि इन्होंने सिर्फ 138 गेंदों में ये रन बनाएं थे। जिसमें इन्होंने 22 बॉउंड्रीज, 16 चौके और 6 छक्कों की मदद से लगाईं थीं। 9 वें विकेट के लिए 126 रन की सबसे बड़ी साझेदारी किरमानी (22 रन) एवं श्री कपिल देव जी के बीच हुई थी, जिसको 27 सालों तक कोई नहीं तोड़ पाया था। इतना ही नहीं इसी मैच में श्री कपिल देव जी ने शानदार गेंदबाजी करते हुए ज़िम्बाब्बे के 5 विकेट भी लिए थे।
भारत को जिताया पहला विश्व कप
भारत को 1983 अपना पहला विश्व कप जीतने के लिए वेस्टइंडीज को फाइनल में हराना पड़ा था। भारत ने श्री कपिल देव (Kapil Dev) जी की कप्तानी में 1983 में इंग्लैंड में होने वाले वर्ल्ड कप को जीतकर इतिहास रच दिया था। क्वार्टर फाइनल में ऑस्ट्रेलिया और सेमीफाइनल में इंग्लैंड को हराकर भारतीय टीम पहली बार वर्ल्ड कप फाइनल में पहुंची थी। उस समय भारतीय टीम को विश्व कप की मजबूत और प्रबल दावेदार वेस्टइंडीज के खिलाफ मैच खेलना था। इसी के परिणामस्वरूप वेस्टइंडीज के तेज गेंदबाजों के सामने भारतीय पारी फाइनल में केवल 180 रनों पर ऑलआउट हो गई। जिसे देखकर सभी की भारतीय टीम वर्ल्ड कप जीतने की उम्मीद खत्म हो गई थी। लेकिन श्री कपिल देव जी हार मानने वालों में से नहीं थे। उन्होंने और उनके साथी गेंदबाजों ने सटीक गेंदबाजी से वेस्टइंडीज के बल्लेबाजों के सामने मुश्किलें पैदा करना शुरू कर दिया और इसी दबाव में वेस्टइंडीज थोड़ी-थोड़ी देर पर अपने विकेट गंवाते रहे। जिसके कारण केवल 140रनों पर अपने 10 विकेट गंवा दिए और इस तरह भारतीय टीम ने 1983 world cup का फाइनल मुकाबला जीत लिया। पूरे विश्व क्रिकेट को चौंकाते हुए भारतीय टीम नई विश्व विजेता बनकर दुनिया के सामने आई।
कई बड़े पुरस्कारों से हुएं हैं सम्मानित
भारत को पहला विश्व कप जिताने वाले श्री कपिल देव जी ने अपने जीवन में कई उपलब्धियों को हासिल किया है। साल 1979-80 के सत्र में क्रिकेट में अच्छा प्रदर्शन करने की वजह से भारत सरकार ने उन्हें अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया था। यही नहीं साल 1982 के दौरान भारत ने श्री कपिल देव जी की प्रतिभा और लगन को देखकर पद्म श्री का पुरस्कार से भी नवाज़ा था। साल 1983 में विज्डन क्रिकेटर ऑफ द ईयर का सम्मान दिया गय था। इन्होंने 1994 में रिचर्ड हेडली का टेस्ट क्रिकेट में सबसे ज्यादा विकेट हासिल करने का रिकार्ड तोड़ दिया था। इतना ही नहीं टेस्ट क्रिकेट में 400 विकेट के साथ-साथ अपने 4000 रन पूरे करने वाले अभी तक के विश्व के उच्चतम खिलाड़ी हैं। साल 1991 में श्री कपिल देव जी के योगदान एवं लगन को सम्मानित करने के लिए पद्म भूषण जैसा उच्चतम पुरस्कार दिया गया है। सन् 2010 आईसीसी क्रिकेट हॉल ऑफ फेम पुरस्कार देकर इनकी प्रतिभा को सम्मानीय दर्जा दिया था। इसके साथ ही वो अन्य कई सम्मान से भी सम्मानित हो चुके हैं।
श्री कपिल देव जी के जीवन पर बन चुकी है फिल्म
भारत के सबसे सफल कप्तानों में से एक श्री कपिल देव (Kapil Dev) जी के जीवन पर आधारित हाल ही में फिल्म भी बन चुकी है। 83 नाम से विख्यात इस फिल्म में अभिनेता रणवीर सिंह ने श्री कपिल देव जी की भूमिका अदा की है। जिसमें 1983 विश्व कप जीतने का सफर दिखाया गया है।
श्री कपिल देव जी ने अपनी शानदार कप्तानी और प्रदर्शन की बदौलत भारतीय टीम को पहली बार world Cup जीताया था। 1994 में श्री कपिल देव जी ने 35 साल की उम्र में क्रिकेट के सभी फॉर्मेट से संन्यास ले लिया था। लेकिन आज भी क्रिकेट में खेली गई उनकी कई पारियां लोगों को याद है। श्री कपिल देव जी ने अपनी मेहनत और लगन के बल पर सफलता की नई कहानी लिखी है। वो आज लाखों लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत है। Bada Bussiness क्रिकेट में दिए गए श्री कपिल देव (Kapil Dev) जी के अनमोल योगदान की तहे दिल से सराहना करता है एवं उनके जन्मदिन पर उन्हें ढेरों शुभकामनाएं देता है।
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