14/01/2025
प्रत्येक व्यक्ति अपना भाग्य अच्छा बनाना चाहता है, और अच्छा भाग्य प्राप्त करके सुखी होना चाहता है। "इसके लिए उसे कुछ अच्छे कर्म भी करने पड़ेंगे।"
क्योंकि ईश्वर न्यायकारी है। वह अच्छे कर्म करने पर ही अच्छा फल देता है। बुरे कर्म करने पर बुरा फल देता है। "तो जो लोग सुखी होना चाहते हैं, उनका भाग्य अच्छा होना चाहिए। 'भाग्य' पूर्व कृत कर्मों का ही नाम है, अर्थात यदि पहले उन्होंने अच्छे कर्म कर रखे हैं, तो आज उनका भाग्य अच्छा होगा, और उन्हें सुख फल मिलेगा।" इसी प्रकार से "यदि लोग आज अच्छे कर्म करेंगे, तो इससे उनका भविष्य का भाग्य अच्छा बनेगा, और उन्हें भविष्य में सुख मिलेगा।" "इसलिए आज अपने कर्मों को अच्छा बनाएं, जिससे कि आपका आगे का भविष्य अच्छा बने।"
अब अच्छे कर्म कैसे करें? इसका उत्तर है, कि "व्यक्ति जो कर्म करता है, वह एक - तो अपने पूर्व संस्कारों से प्रेरित होकर करता है। तथा दूसरा- माता-पिता गुरुजनों मित्रों आदि के प्रशिक्षण से प्रेरित होकर करता है।"
प्रत्येक व्यक्ति में पूर्व जन्मों के कुछ अच्छे संस्कार भी होते हैं, और कुछ बुरे भी। अपने पिछले संस्कारों को जागने में इस जन्म में व्यक्ति स्वतंत्र है। "यदि वह अपने पिछले अच्छे संस्कारों को जगाएगा, तो इस जन्म में वह अच्छे काम करेगा, जिससे कि उसका भविष्य अच्छा अर्थात सुखमय बनेगा। यदि वह अपने पुराने बुरे संस्कारों को जगाएगा, तो उनसे प्रेरित होकर वह बुरे कर्म करेगा, जिससे कि उसका भविष्य बिगड़ जाएगा।"
इसी प्रकार से वर्तमान जीवन में "यदि वह अच्छे लोगों की संगति करेगा, तो उनसे प्रेरित होकर वह नए अच्छे कर्म करेगा, इससे उसका भविष्य अच्छा बनेगा।" "यदि बुरे लोगों की संगति करेगा, तो उनसे प्रेरित होकर वह आज बुरे कर्म करेगा, इससे उसका भविष्य बिगड़ जाएगा।"
सारी बात कहने का सार यह हुआ, कि "अपने पिछले अच्छे संस्कारों को जगाएं, और वर्तमान में अच्छे लोगों की संगति में रहें, जिससे कि आपके नए कर्म अच्छे बनें, और आपका भविष्य सुखमय हो।"
---- "स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक - दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात."
13/01/2025
मनुष्य संसार में जन्म लेता है। जब संसार में आता है, तो उसके पास कुछ भी नहीं होता। एक नया पैसा भी नहीं होता। "उसको बैठना उठना कुछ नहीं आता। खाना पीना नहीं आता। चलना फिरना नहीं आता। पढ़ना लिखना नहीं आता। कुछ भी नहीं आता।" "सब कुछ उसे माता-पिता सिखाते हैं। गुरुजन सिखाते हैं, मित्र संबंधी सिखाते हैं। और भी समाज के अनेक विद्वान उसे अनेक प्रकार की विद्याएं और कलाएं सिखाते हैं।"
"उन सब विद्याओं और कलाओं को सीख कर कुछ वर्षों में ही वह अभिमान में आ जाता है। और धीरे-धीरे उसका अभिमान इतना बढ़ जाता है, कि वह किसी को कुछ नहीं समझता। अपने माता-पिता गुरु आचार्य विद्वान समाज के बड़े-बड़े लोग जिन्होंने उसकी सहायता की थी, उन सबको भी कुछ नहीं समझता।" "क्योंकि अभिमान मनुष्य का एक ऐसा भयंकर शत्रु है, जो उसकी बुद्धि का विनाश कर देता है। जब किसी मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है, तब कुछ भी कार्य ठीक नहीं होता। सब उल्टे काम होते हैं, और उस मनुष्य का सब कुछ नष्ट हो जाता है। संसार में अधिकांश लोग इसी पटरी पर चलते हैं।"
"आपने भी अपने जीवन में ऐसे अनेक दुरभिमानी लोग देखे होंगे। इतिहास के उदाहरण भी आप जानते हैं। रावण दुर्योधन शकुनि कंस जरासंध शिशुपाल इत्यादि ऐसे बहुत से दुरभिमानी लोग भूतकाल में हो चुके हैं, जो अभिमान के नशे में अपना सर्वनाश करवा चुके हैं।"
"कोई कोई व्यक्ति पूर्व जन्म का संस्कारी होता है, और उसके पूर्व जन्म के कर्म भी अच्छे होते हैं। उसे सौभाग्य से अच्छे माता-पिता मिल जाते हैं। वे उसको बचपन से ही बहुत अच्छी-अच्छी बातें सिखाते हैं। वह भी पूर्व जन्म के उत्तम संस्कारों के कारण अच्छा पुरुषार्थ करता है, तथा एक धार्मिक विद्वान सदाचारी बुद्धिमान विनम्र व्यक्ति बन जाता है। ऐसा व्यक्ति अपना भी कल्याण कर लेता है, और समाज का भी।"
"इतिहास में श्री रामचंद्र जी महाराज, श्री कृष्ण जी महाराज, महर्षि दयानंद सरस्वती जी, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी इत्यादि जैसे महापुरुष हो चुके हैं। उनका अनुकरण करना चाहिए। तभी हम सब का जीवन सफल होगा।जीवन में शांति और आनंद होगा। तथा भविष्य में अगला जन्म भी अच्छा मिलेगा।"
सामान्य व्यक्ति की तो यही स्थिति रहती है, कि "जीवन तो एक बूंद के समान है, और जीवन में अभिमान समुद्र से भी बड़ा है।" "तो हम सबको ऐसे उदाहरणों से शिक्षा लेनी चाहिए। अभिमानी लोगों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। और पूर्वोक्त महापुरुषों का अनुकरण करके अपना और दूसरों का जीवन सफल बनाना चाहिए।"
----- "स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय रोजड़, गुजरात।"
12/01/2025
https://youtu.be/rkuaSodietE?si=koE6zymZ5qgrPewn
पत्नी का सही अर्थ || By विदुषी अंजली आर्या
विदुषी अंजली आर्या....................................................................................यह बहन अंजली आर्य का ऑफिशियल चैनल है |...................
12/01/2025
सनातन संस्कृति में गुणसूत्र का महत्व...
गुणसूत्र वंश का वाहक हमारे धार्मिक ग्रंथ और हमारी सनातन हिन्दू परंपरा के अनुसार पुत्र (बेटा) को कुलदीपक अथवा वंश को आगे बढ़ाने वाला माना जाता है...अर्थात उसे गोत्र का वाहक माना जाता है.
क्या आप जानते हैं कि.... आखिर क्यों होता है कि सिर्फ पुत्र को ही वंश का वाहक माना जाता है ????
असल में इसका कारण.... पुरुष प्रधान समाज अथवा पितृसत्तात्मक व्यवस्था नहीं....बल्कि, हमारे जन्म लेने की प्रक्रिया है...अगर हम जन्म लेने की प्रक्रिया को सूक्ष्म रूप से देखेंगे तो हम पाते हैं कि.....एक स्त्री में गुणसूत्र (Chromosomes) XX होते है.... और, पुरुष में XY होते है।इसका मतलब यह हुआ कि.... अगर पुत्र हुआ (जिसमें XY गुणसूत्र है)... तो, उस पुत्र में Y गुणसूत्र पिता से ही आएगा क्योंकि माता में तो Y गुणसूत्र होता ही नही है और.... यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) तो यह गुणसूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते है.
XX गुणसूत्र अर्थात पुत्री अब इस XX गुणसूत्र के जोड़े में एक X गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा X गुणसूत्र माता से आता है. तथा, इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है... जिसे, Crossover कहा जाता है जबकि... पुत्र में XY गुणसूत्र होता है.अर्थात.... जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि.... पुत्र में Y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में Y गुणसूत्र होता ही नहीं है...और.... दोनों गुणसूत्र अ-समान होने के कारण.... इन दोनों गुणसूत्र का पूर्ण Crossover नहीं... बल्कि, केवल 5 % तक ही Crossover होता है।और, 95 % Y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही बना रहता है...तो, इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण Y गुणसूत्र हुआ.... क्योंकि, Y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत है कि.... यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है.
बस..... इसी Y गुणसूत्र का पता लगाना ही गौत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों/लाखों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था...इस तरह ये बिल्कुल स्पष्ट है कि.... हमारी वैदिक गोत्र प्रणाली, गुणसूत्र पर आधारित है अथवा Y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है।
उदाहरण के लिए .... यदि किसी व्यक्ति का गोत्र शांडिल्य है तो उस व्यक्ति में विद्यमान Y गुणसूत्र शांडिल्य ऋषि से आया है.... या कहें कि शांडिल्य ऋषि उस Y गुणसूत्र के मूल हैं...अब चूँकि.... Y गुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता है इसीलिए विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है.
वैदिक/ हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व् स्त्री भाई-बहन कहलाए क्योंकि उनका पूर्वज (ओरिजिन) एक ही है..... क्योंकि, एक ही गोत्र होने के कारण...दोनों के गुणसूत्रों में समानता होगी.आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार भी..... यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनके संतान... आनुवंशिक विकारों का साथ उत्पन्न होगी क्योंकि.... ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता एवं ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है.
विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं...शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था...यही कारण था कि शारीरिक बिषमता के कारण अग्रेज राज परिवार में आपसी विवाह बन्द हुए। जैसा कि हम जानते हैं कि.... पुत्री में 50% गुणसूत्र माता का और 50% पिता से आता है.फिर, यदि पुत्री की भी पुत्री हुई तो.... वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा...और फिर.... यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा.
इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह % घटकर 1% रह जायेगा. अर्थात.... एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है....और, यही है "सात जन्मों के साथ का रहस्य".लेकिन..... यदि संतान पुत्र है तो .... पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है...और, यही क्रम अनवरत चलता रहता है...जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं.... अर्थात, यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है.
इन सब में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि.... माता पिता यदि कन्यादान करते हैं तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं...बल्कि, इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुल धात्री बनने के लिये, उसे गोत्र मुक्त होना चाहिए...पुत्रियां..... आजीवन डीएनए मुक्त हो नहीं सकती क्योंकि उसके भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही, इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है.
शायद यही कारण है कि..... विवाह के पश्चात लड़कियों के पिता को घर को ""मायका"" ही कहा जाता है.... "'पिताका"" नहीं...क्योंकि..... उसने अपने जन्म वाले गोत्र अर्थात पिता के गोत्र का त्याग कर दिया है....!और चूंकि..... कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का दान कर मातृत्व को प्राप्त करती है... इसीलिए, हर विवाहित स्त्री माता समान पूजनीय हो जाती है...आश्चर्य की बात है कि.... हमारी ये परंपराएं हजारों-लाखों साल से चल रही है जिसका सीधा सा मतलब है कि हजारों लाखों साल पहले....जब पश्चिमी देशों के लोग नंग-धड़ंग जंगलों में रह रहा करते थे और चूहा ,बिल्ली, कुत्ता वगैरह मारकर खाया करते थे....
उस समय भी हमारे पूर्वज ऋषि मुनि.... इंसानी शरीर में गुणसूत्र के विभक्तिकरण को समझ गए थे.... और, हमें गोत्र सिस्टम में बांध लिया था.
इस बातों से एक बार फिर ये स्थापित होता है कि....
हमारा सनातन हिन्दू धर्म पूर्णतः वैज्ञानिक है....बस, हमें ही इस बात का भान नहीं है...असल में..... अंग्रेजों ने जो हमलोगों के मन में जो कुंठा बोई है..... उससे बाहर आकर हमें अपने पुरातन विज्ञान को फिर से समझकर उसे अपनी नई पीढियों को बताने और समझाने की जरूरत है.
नोट :- मैं पुत्र और पुत्री अथवा स्त्री और पुरुष में कोई विभेद नहीं करता और मैं उनके बराबर के अधिकार का पुरजोर समर्थन करता हूँ...लेख का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ.... गोत्र परंपरा एवं सात जन्मों के रहस्य को समझाना मात्र है।
12/01/2025
"संसार में सबसे सरल काम है, 'दूसरों का दोष बताना।" आपको ऐसे बहुत से लोग मिलेंगे, जो दिन भर यही काम करते हैं। "दूसरों को दोष ही बताते रहते हैं। भले ही स्वयं दोषों का भंडार हों। वे अपने दोष नहीं देखते। दूसरों पर ही सारा दिन नजर गड़ाए रखते हैं, वे किसी को भी नहीं छोड़ते, और सब की टीका टिप्पणी करते रहते हैं।"
"यदि कोई उनका दोष उन्हें बताने लगे, तो वे अपना दोष सुनना नहीं चाहते, सुन भी नहीं पाते, तुरंत आग बबूला हो जाते हैं। क्योंकि अपना दोष सुनना बहुत कठिन कार्य है।"
और इससे भी अधिक कठिन कार्य यह है, कि "कोई व्यक्ति अपना दोष सुनकर भी अपने आप को संयमित रखे। न क्रोध करे, न विचलित हो। अपने मन बुद्धि को संतुलित रखे। यह कार्य सबसे अधिक कठिन है, परंतु असंभव नहीं है। ऐसा करना भी संभव है।" "इसकी भी एक कला है, जिसकी सहायता से व्यक्ति स्वयं को संतुलित रख सकता है, और बिना क्रोध किए शांति से अपना जीवन जी सकता है।"
वह कला इस प्रकार से है, कि "जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति पर आरोप लगाए, तो वह लगाए गए अपने आरोप पर शांति से विचार करे, कि जो आरोप मुझ पर लगाया गया है, क्या वह दोष वास्तव में मुझ में है अथवा नहीं? यदि नहीं है, तो क्रोध क्यों करना? झूठे आरोप पर तो वैसे ही ध्यान नहीं देना चाहिए। ऐसी बातों को तो हवा में उड़ा देना चाहिए, और मस्त रहना चाहिए। और यदि दोष वास्तव में हो, तब भी क्रोध नहीं करना चाहिए। तब उस दोष को स्वीकार करके उसे दूर करना चाहिए।"
"जो व्यक्ति यह विधि जानता है, वह कभी भी असंतुलित नहीं होता। व्यर्थ क्रोध नहीं करता। शांत रहता है, प्रसन्न रहता है। वही व्यक्ति सुख पूर्वक जी सकता है।"
"अपराधी व्यक्ति को दंड देना, इसका नाम क्रोध नहीं है। इसका नाम है 'मन्यु।' 'मन्यु' शब्द का यही अर्थ है कि "न्यायपूर्वक अपराधी को उचित दंड देना।" मन्यु का प्रयोग तो ईश्वर भी करता है, परंतु वह क्रोधी नहीं है। क्रोध का अर्थ है "अन्यायपूर्वक मात्रा से अधिक या अनुचित दंड देना।" वेद आदि सत्य शास्त्रों में क्रोध करने का निषेध है, परन्तु मन्यु करने का विधान है। वेद में लिखा है , "मन्युरसि मन्युं मयि धेहि।" अर्थात हे ईश्वर! आप दुष्टों को न्यायपूर्वक दण्ड देते हैं, अर्थात मन्यु करते हैं, मुझे भी ऐसी शक्ति बल विद्या बुद्धि आदि दीजिए, जिससे कि, जहां-जहां मेरा अधिकार हो वहां वहां, मैं भी अपराधी लोगों को दंडित कर सकूं। परंतु अन्याय पूर्वक व्यर्थ क्रोध कभी न करूं।"
"इस प्रकार से क्रोध एवं मन्यु का अंतर समझते हुए क्रोध कभी नहीं करना चाहिए, और मन्यु का प्रयोग अपने अधिकार क्षेत्र में करना चाहिए।" यह बहुत सुंदर कला है, जिससे व्यक्ति संतुलित रूप से अपना जीवन शांतिपूर्वक जी सकता है।
"यदि आप इस कला को जानते हैं, तो बहुत अच्छी बात है। यदि नहीं जानते, तो आप भी सीखें और आनन्द से अपना जीवन जिएं।"
---- "स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक - दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात."
12/01/2025
https://youtube.com/shorts/xZdtZJCPQKo?si=1OcFKKWbH6C6vDsM
जहाँ ताऊ की बेटी की इज्जत लुटन फिरे चचेरा #vaidikprachar
वैदिक भजन व वैदिक उपदेश के कार्यक्रम की कवरेज के लिए व अन्य वीडियो हमारे पास भेजने के लिए सम्पर्क करें।Harsh*t Sharma (+91 88148-35357...
11/01/2025
आजकल लोगों में सहनशक्ति बहुत कम हो गई है। छोटी-छोटी बात पर रूठ जाना, गुस्सा करना, झगड़ा करना सामान्य बात हो गई है। "विशेष रूप से प्रेम विवाह करके लोग कुछ ही दिनों महीनों या एक दो वर्ष में ही संबंध तोड़ देते हैं। विवाह के नियमों और गृहस्थ आश्रम की जिम्मेदारियां लोग समझते ही नहीं हैं। क्योंकि उन्हें इस विषय में कोई विशेष या सही प्रशिक्षण माता-पिता अथवा स्कूली पाठ्यक्रम के माध्यम से दिया भी नहीं जाता।"
"केवल कुछ रूप रंग देखकर कुछ आय का स्रोत देखकर मोटर गाड़ी परिवार संपत्ति आदि देखकर लोग आजकल शीघ्र ही विवाह कर लेते हैं। वे इस बात का कोई विशेष परीक्षण ही नहीं करते, कि विवाह करने वाले दोनों व्यक्तियों में गुण कर्म स्वभाव का तालमेल है भी या नहीं?" इसका परिणाम यह होता है, कि "कुछ ही समय में जब उन दोनों में विचारों का टकराव उत्पन्न होता है, तो सहनशक्ति न होने के कारण वे एक दूसरे के साथ कोई समायोजन नहीं कर पाते, और शीघ्र ही संबंध तोड़ देते हैं। ऐसा करना उचित अथवा बुद्धिमत्ता नहीं है।"
"पहले तो विवाह ही लंबे समय तक एक दूसरे का परीक्षण करके तथा गुण कर्म स्वभाव का मिलान कर के करना चाहिए। पुराने समय में तो लोग अपने बच्चों का गुण कर्म स्वभाव जन्म से लेकर विवाह होने तक लिखते थे। फिर दोनों का गुण कर्म मिलाकर विवाह करते थे। तो परिवार जल्दी से टूटते नहीं थे। और अच्छे संबंध बना कर जीवन कर चलते थे। इस समय अपने बच्चों का गुण कर्म स्वभाव कोई लिखता नहीं, तो पता ही नहीं चलता, कि किसका गुण कर्म स्वभाव कैसा है? इसलिए कुछ ही समय में विवाह संबंध तोड़ने की नौबत आ जाती है।" "तो आजकल गुण कर्म स्वभाव कैसे मिलाएं? आजकल कम से कम इतना ही कर लें, कि facebook इंस्टाग्राम आदि को देखकर एक दूसरे के गुण कर्म स्वभाव या विचारों का पता लगा लें। फिर जिस जिसके गुण कर्म स्वभाव मेल खाते हों, वे लोग विवाह करें।" "क्योंकि भारतीय वैदिक सभ्यता संस्कृति में विवाह कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं है, जो जीवन में बार-बार होता रहे।"
"यदि गुण कर्म स्वभाव पूरा नहीं मिलाया, और जल्दबाजी में विवाह कर लिया, और यदि परीक्षण कम होने के कारण या किसी अन्य कारण से आपस में तालमेल नहीं बैठता, तो तब भी कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। एक दूसरे को समझने का अवसर देना और समायोजन करने का प्रयत्न करना चाहिए। फिर जब लंबे समय तक किसी भी प्रकार से समायोजन न हो पाए, तब संबंध तोड़ने की बात सोचनी चाहिए। और जब संबंध तोड़ना ही हो, तो उसकी विधि अवश्य सीख लेनी चाहिए।"
संबंध तोड़ने की सही विधि इस प्रकार से है -- "किसी व्यक्ति से संबंध तोड़ने से पहले उस के सारे गुणों की कागज़ पर एक लिस्ट बनाएं। और उसके सारे दोषों की भी कागज़ पर एक लिस्ट बनाएं। फिर उसके गुणों और दोषों को कम से कम 20 बार पढ़कर उनकी अच्छी प्रकार से तुलना करें। यदि उसके गुणों से आपको लाभ अधिक दिखाई देता हो, तो उसके साथ संबंध बनाए रखें, तोड़ें नहीं। यदि उसके दोषों से आपको हानि अधिक हो रही हो, और भविष्य में भी अधिक हानि होने की संभावना हो, तो ही संबंध तोड़ें, अन्यथा नहीं।"
"इस हानि लाभ का निर्णय करने में बहुत बुद्धिमत्ता चाहिए। बुद्धिमत्ता पूर्वक यह निर्णय लेवें। क्योंकि ऐसे संबंध तोड़ना और जोड़ना बार-बार संभव नहीं होता।" "कहीं ऐसा न हो कि जल्दबाजी में आप ग़लत निर्णय लेकर संबंध तोड़ दें, और फिर बाद में जीवन भर पश्चाताप करते रहें। ऐसे पश्चाताप से बचने के लिए पूरी बुद्धिमत्ता धैर्य और संयम का प्रयोग करते हुए सही निर्णय लें। तभी आप जीवन में सुख पूर्वक जी सकेंगे।"
(नोट -- "मैंने यह लेख लोगों के संबंध तुड़वाने के लिए नहीं लिखा, बल्कि उनके संबंध बनाए रखने के लिए लिखा है। इस लेख को लिखने का मेरा उद्देश्य यह है, कि "लोग जल्दबाज़ी में कोई ग़लत निर्णय न लें। परस्पर संबंध न तोड़ें, बुद्धिमत्ता और गंभीरता से लंबे समय तक विचार करें, तभी कोई निर्णय लेवें, और सुख पूर्वक जीवन जिएं।" "परंतु जो लोग ऐसी स्थिति में पहुंच चुके हैं, जिन्होंने अंतिम निर्णय कर ही लिया है, कि "हमने बार-बार बहुत गंभीरता से विचार कर लिया है, कि अब हम किसी भी तरह से साथ में नहीं रह सकते, हमें संबंध तोड़ना ही है।" तो वे लोग भी जल्दबाजी न करें। बल्कि बहुत सोच समझकर ही संबंध तोड़ें, ताकि बाद में जीवन भर पश्चाताप न करना पड़े। क्योंकि अनेक बार ऐसा देखा जाता है, कि पहले पति पत्नी या मित्र लोग भी जल्दबाजी में संबंध तोड़ देते हैं। फिर बाद में वे पछताते हैं, कि हमने संबंध तोड़कर गलती की। अब वे दोबारा संबंध जोड़ना भी चाहते हैं, परंतु तब तक बहुत सी परिस्थितियां बदल चुकी होती हैं, इसलिए वे चाहकर भी दोबारा संबंध जोड़ नहीं पाते, और जीवन भर पश्चाताप करते हुए दुखी रहते हैं। तो ऐसे लोग ऐसी गलती न करें, जीवन भर दुखी न हों, उन लोगों के लिए मैंने मुख्य रूप से यह लेख लिखा है, सबके लिए नहीं।" "बाकी लोग भी इस लेख से शिक्षा लेकर जल्दबाजी में कोई गलत निर्णय न लें। ऐसा मेरा आप सब से निवेदन है।")
---- "स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक - दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात."
10/01/2025
ओ३म्
मचा कोहराम है, चारों दिशाओं में
नहीं है शान्ति कुछ, अब हवाओं में
सुख दुःख अंतर्निहित है मन के भावों में
इन सब का समाधान है वेद की ऋचाओं में
*स्वामी विवेकानंद परिव्राजक जी*
10/01/2025
"दो महिलाएं अगर कहीं बैठ जाएं, तो उनकी चर्चा शुरू हो जाती है।" ऐसा लोग कहते हैं कि "शायद ही कहीं दो महिलाएं चुपचाप बैठी हों।"
जब उनकी चर्चा चलती है, तो क्या बातें होती हैं? "अधिकतर दूसरों की निंदा चुगली। गली मोहल्ले वालों की निंदा। अपने ऑफिस वालों की निंदा। और भी जो जो विषय उनके सामने आते हैं, उन सबकी निंदा करना आरंभ कर देती हैं।" "पुरुष भी अवसर मिलते ही ऐसी निंदा करते हैं। हो सकता है, महिलाओं से कुछ कम मात्रा में करते हों, फिर भी अवसर मिलते ही वे लोग भी दूसरों की निंदा करते हैं। महिलाएं तो इस विषय में कुछ अधिक ही बदनाम हैं।"
लोग क्यों एक दूसरे की निंदा करते हैं? शायद इसलिए कि "उन्हें निंदा करने में सुख मिलता है। यदि किसी का दोष 10 पैसे का हो, और 10 पैसे का ही दोष बताया जाए, तो उसमें भी लोगों को आनंद आता है।" "परंतु प्रायः देखा यह जाता है, कि 10 पैसे का दोष होने पर भी लोग उसे 20 30 40 पैसे का बढ़ाकर बताते हैं। उसमें तो उन्हें और भी अधिक सुख मिलता है। परंतु निंदा चुगली करने वाले लोग इस बात को नहीं समझते, कि वे एक बड़ा अपराध कर रहे हैं।"
वेद और ऋषि लोग कहते हैं, यदि किसी के बारे में आपको कोई टिप्पणी करनी भी हो, तो ठीक-ठीक करें। "सत्य बोलना कोई अपराध नहीं है, परंतु भ्रांति फैलाना अपराध अवश्य है।" "वेद और ऋषियों के अनुसार यदि कोई किसी की निंदा करता भी है, किसी का दोष बताता भी है, तो उतना ही दोष बताए, जितनी मात्रा में उस व्यक्ति में वह दोष हो। बढ़ा-चढ़ाकर दोष बताना तो भ्रांति फैलाने वाला काम है। और यदि आप किसी के विषय में भ्रांति फैलाते हैं तो यह उचित नहीं है।"
"यह कितना अनुचित है, यह बात तो तब समझ में आएगी, जब कोई दूसरा व्यक्ति आपके विषय में ऐसी भ्रांतियां फैलाएगा।"
यहां एक बात और ध्यान रखने की है। "जब आप किसी का दोष बताते हैं, तो सुनने वाले व्यक्ति के मन में उसके प्रति कुछ घृणा क्रोध द्वेष आदि के भाव उत्पन्न होते हैं, जिसके विषय में दोष बताए जा रहे हैं। ऐसे में वह व्यक्ति उससे घृणा करने लगता है। इससे उसकी हानि होती है, जिसकी निंदा की जा रही है। समाज के लोग जब उससे घृणा करने लगते हैं, तो समाज के लोगों से जो उसे सहयोग मिल रहा था, उसमें कमी आती है। इस प्रकार से निंदा करने वाले लोग उस व्यक्ति की हानि करते हैं। इस कारण से इसे अपराध माना जाता है।"
यदि आपको सत्य बोलना ही हो, किसी का वास्तविक दोष बतलाना ही हो, तो पहले दोष बताने का उद्देश्य भी समझ लें। "दोष बताने का उद्देश्य होता है, समाज को दोषी व्यक्ति के अत्याचारों से बचाना। यदि इस उद्देश्य से आप किसी का दोष बताते हैं, तो बताएं। परंतु तब भी इतना ध्यान अवश्य रखें, कि कुछ न कुछ दोष सभी में होते हैं।आप में भी हैं। दूसरों में भी हैं। तो दोष बताते समय यह सावधानी रखें, कि समाज को दोष बताकर उस व्यक्ति के अत्याचारों से अवश्य बचाएं, परंतु समाज में उसके प्रति अनावश्यक घृणा उत्पन्न न करें।"
"अर्थात यदि आप किसी व्यक्ति के तीन-चार दोष बताते हैं, तो उसके तीन-चार गुण भी अवश्य बताएं। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में केवल दोष ही नहीं होते, कुछ गुण भी होते हैं। यदि आप किसी व्यक्ति के केवल दोष बताएंगे, तो यह अन्याय होगा, और इसका पाप आपको लगेगा। इस पाप से बचने के लिए यदि आप किसी व्यक्ति के चार दोष और चार गुण दोनों बताएं, तब सुनने वाला व्यक्ति या समाज स्वयं निर्धारित कर लेगा, कि मुझे इस व्यक्ति के साथ आगे कैसा व्यवहार करना है। तब आप को भ्रांति फैलाने का पाप नहीं लगेगा। आप तो अपने पाप से बचें, अपनी सुरक्षा करें, इसी में आपकी भलाई है।"
"अतः कुछ भी बोलने से पहले पूरी परीक्षा करें। प्रमाणों से जब सत्य सिद्ध हो जाए, तभी दूसरे व्यक्ति के विषय में कुछ बोलें। अन्यथा मौन रहना ही आप के लिए हितकारी है।"
----- "स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय रोजड़, गुजरात।"
09/01/2025
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् । प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन: ॥
09/01/2025
जरूरी नहीं कि शिक्षा और महंगे कपड़े मानवता की शिक्षा दे ही दें। यह आवश्यक नहीं हैं। यह तो भीतर के संस्कारों से पनपती है। दया, करूणा, दूसरों की भलाई का भाव, छल कपट न करने का भाव, मनुष्य को परिवार के बुजुर्गों द्वारा दिये संस्कारों से तथा अच्छी संगत से आते हैं।
"अगर संगत बुरी है तो अच्छे गुण आने का प्रश्न ही नही है।"
09/01/2025
कल के संदेश में हमने चिंतन करने और वाणी / भाषा बोलने के दोष बताए थे। "आज के संदेश में हम यह कहना चाहते हैं, कि अपने व्यवहार के दोषों को भी जानें और उन्हें दूर करें।"
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने संसार में बहुत परीक्षण करके यह बात बताई कि "लोग व्यवहार में किस-किस प्रकार के दोष करते हैं। उस पुस्तक में उन्होंने कुल मिलाकर 58 प्रकार के दोष बताए हैं। उनकी लिखी पुस्तक "व्यवहार भानु:" पढ़ें। "उस पुस्तक से व्यवहार के दोषों को पढ़कर / जानकर अपना आत्म निरीक्षण करें, और देखें कि मुझ में क्या क्या दोष हैं?" "जो जो दोष आपको अपने अंदर प्रतीत हों, उन्हें दूर करें। तब ही आप की अनेक चिंताएं तनाव और काम क्रोध लोभ ईर्ष्या अभिमान आदि दोष छूट पाएंगे। इससे आपका बहुत सारा दुख कम हो जाएगा।"
"और इन दोषों के विपरीत सभ्यता नम्रता सेवा परोपकार दान दया अहिंसा सत्य आदि व्यवहार के उत्तम गुणों को धारण करें। इससे आपका सुख बहुत अधिक बढ़ेगा।"
(व्यवहार भानु: पुस्तक प्राप्त करने के लिए अपने आसपास की किसी भी आर्य समाज से संपर्क करें। वहां आपको यह पुस्तक मिल सकती है। अन्यथा वहां से आपको सूचना मिल जाएगी, कि इस पुस्तक को कहां से मंगवाया जाए। बहुत छोटी सी पुस्तक है, लगभग 30/40 पृष्ठ की।)
---- "स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक - दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात."
08/01/2025
"दुखों से बचने के लिए दोषों को दूर करना पड़ता है, और सुख प्राप्त करने के लिए उत्तम गुण कर्म स्वभाव को धारण करना पड़ता है।"
"व्यक्ति पहले मन में चिंतन करता है। जैसा वह चिंतन करता है, वैसा ही वह वाणी से बोलता है। यदि उसका चिंतन सही है, तो उसका बोलना भी सही होगा, और वह सुखी रहेगा।" "यदि उसका चिंतन गलत है, तो उसका बोलना भी गलत होगा, इस से वह दुखी रहेगा। तत्काल भी ईश्वर उसके मन में चिंता तनाव आदि उत्पन्न कर देगा। और आगे समय आने पर उसे अनेक प्रकार का दंड भी देगा।" "छोटा या बड़ा जैसा भी उसके चिंतन और वाणी का अपराध होगा, उसके अनुसार ईश्वर उसे दंड देगा, जिससे वह दुखी होगा।"
"अतः यदि आप दुखों से बचना चाहते हों, तो अपने चिंतन तथा भाषा को ठीक करें।" "चिंतन और भाषा में जो गलतियां होती हैं, वे कुल मिलाकर 54 प्रकार की न्याय दर्शन में बताई गई हैं। न्याय दर्शन को पढ़ें और वहां से उन गलतियों को समझकर अपने चिंतन और भाषा में से उन्हें दूर करें। तभी आप ईश्वर द्वारा दिए जाने वाले दंड और दुख से बच पाएंगे, अन्यथा नहीं।" "उन गलतियों को समझकर, छोड़कर सही चिंतन करना सीखें, और सही भाषा बोलना सीखें। तभी आप सुखी रह पाएंगे, अन्यथा नहीं।"
("मैंने न्याय दर्शन को सैंकड़ों बार पढ़ पढ़ा कर उन 54 गलतियों को संकलित किया है और विस्तार से उनकी व्याख्या भी की है। इस विषय में लिखी गई मेरी पुस्तक का नाम है "सत्य की खोज". जो लोग इस पुस्तक को मंगवाकर पढ़ना चाहते हैं, वे इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं। आचार्य दिनेशकुमार, मो. 9924227154.")
---- "स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक - दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात."
07/01/2025
हर व्यक्ति सुखी रहना चाहता है, परंतु" वह सुखी कैसे होगा?" इस बात को ठीक प्रकार से नहीं जानता।
सुखी होने के लिए सबसे पहली बात है, कि "व्यक्ति का चिंतन सही होना चाहिए। फिर उसकी वाणी/भाषा सही होनी चाहिए। और फिर व्यवहार भी शुद्ध होना चाहिए।" "जिसका चिंतन सही है, वाणी सत्य और मीठी है, तथा आचरण व्यवहार भी सही है। केवल वही व्यक्ति सुखी रह सकता है।" "गलत चिंतन, गलत भाषा और गलत आचरण वाला व्यक्ति कभी भी सुखी नहीं हो सकता।"
अब यह कैसे पता चले, कि "कौन सा चिंतन वाणी और व्यवहार सही है, या गलत है?" "उसका आधार ईश्वर है। ईश्वर सर्वज्ञ है, इसलिए उसका ज्ञान सब प्रकार से सत्य है। उसका ज्ञान उसने वेदों में दिया है। इसलिए जो व्यक्ति अपने चिंतन वाणी व्यवहार को जानना चाहता हो, कि मेरा चिंतन वाणी व्यवहार सत्य है या असत्य है? सही है या गलत है? तो उसे वेदों को पढ़ना चाहिए।"
चार वेद ऊंची कक्षा की पुस्तकें हैं। सबको समझ में नहीं आएंगे। "इसलिए ऋषियों ने वेदों की व्याख्या करके अपनी पुस्तकों में वेदों की बातें सरल भाषा में बताई हैं। जो लोग वेद को नहीं पढ़ सकते, वे ऋषियों के ग्रंथ पढ़ें, तो उन्हें पता चल जाएगा, कि कौन सा चिंतन वाणी और व्यवहार सही है, तथा कौन सा गलत है?"
"अतः ऋषियों के ग्रंथों से पहले आप इस बात का निर्णय कर लें। फिर उनके अनुसार सही चिंतन करना, सही भाषा बोलना, और सही आचरण करना ही आपके लिए सुखदायक होगा, अन्यथा नहीं।"
----- "स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय रोजड़, गुजरात।"
06/01/2025
सत्य उस सूर्य की भांति है जो नित्य अपने प्रकाश से उज्जवल हैं और अपनी महिमा में स्तिथ है। उसे उपमाओ की जरुरत नहीं ,वह बस “हैं” .!!
असत्य तो ग्रहण है जिसे लगता है की उसने सूर्य का अस्तित्व ख़त्म कर दिया है , लेकिन कुछ समय बाद खुद ही ख़त्म हो जाता है।